विष्णू के पग से निकलकर जो, विष्णुपगा कहलाई,
हिमालय के घर मे जन्मी , हिम आँगन मे खेली।
हिम के द्वार को छोड़ के जिसने , मनुष्य कल्याण का भार उठाया,
भगीरथ की कठिन तपस्या से जो, भगीरथी बनकर धरती पर आई।
वेग था इतना जिसमे, कोई सहन नही कर पाता,
शिव ने जिसको अपनी जटाओं के बीच मे स्थान दिया हैं।
देवनदी वह, देवसरी वह, देवपगा कहलाई,
मोक्ष दायनी, नदीश्वरि वह, मन्दाकनी कहलाई।
युग युग से वह देवभुमी की सुधा मिटाती आई,
अमृत तुल्य जल था जिसका वो गंगा कहलाई।
अलकनंदा,विष्णुपदी, वह ध्रुवनंदा कहलाई,
सुरसरि वह, सुरसरिता वह, सुरध्वनि कहलाई।
बरसो जिसने विश्व के अनगिनत पापो को धोया हैं,
आज दुर्दशा देखकर उसकी, क्यों इंसा तू सोया हैं।
आज वहीं जान्ह्वी तुझसे अपनी जान की रक्षा का वचन मांगती हैं,
बहुत पवित्र किया जीवन कितनो का उसने, अब वो अपनी पवित्रता मांगती हैं।
त्रिपथगा वह , तीन लोको से अपना अस्तित्व मांगती हैं,
बहुत प्रदूषित हुई हैं गंगा , अब गंगा अपना जीवन मांगती हैं।
बहुत बहाया कूड़ा कचरा, बहुत अस्थियाँ विसर्जित की हैं,
बहुत सा गन्दा पानी तुमने गंगा मे, ना जाने कहाँ कहाँ छोड़ा हैं।
अब तो शरम करो हैं मानव , कुछ अपने कृत्यो पर,
कब तक तुम अमृत को युहिं विषैला करते रहोगे।
अब हिसाब मांगती हैं गंगा और बाकी भारत की सारी नदियाँ,
अपनी आने वाली पीढ़ियों को क्या जल के रूप मे ही जहर तुम दोगे।
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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