Thursday, October 18, 2018

कथा समुद्र मंथन की

जब धरती एक द्वीप के समान थी,
मनुष्य जीवन के आरम्भ के लिये हो रही तैयार थी।

जम्बुद्वीप कहलाती थी वो,
कुछ देवीय कृपा प्राप्त ऋषियों, कुछ मायावी असुरों का यहाँ पर वास था।

दैत्य राजा बली थे राजा असुरों के,
उनका इस द्वीप पर एक छत्र ही राज था।

देवताओं का उस समय पर असुरो के कारण बड़ा ही बुरा हाल था,
देअताओ के राजा थे इन्द्र, बाकी सबके बटे अपने अपने कार्य थे।

ऋषी दुर्वासा नाम के थे एक ऋषी प्रतापी,
अपने तप से उन्होने एक दिव्य शक्ती से युक्त माला का निर्माण किया।

वह माला जिसको भी मिलती वह तीनो लोको मे सबसे अधिक बलशाली बन जाता,
उन्होने वो माला सौंपी इन्द्र को देवराज की मर्यादा के सम्मान मे,
पर इन्द्र ने किया अपमान था उनका,अपने पद की प्रतिष्ठा के अभिमान मे।

बड़े क्रोध मे ऋषी वर ने देवो को था श्राप दिया,
लक्ष्मी और शक्ति से हीन हो जाओगे तुम, तुमने हैं मेरे तप का अपमान किया।

ऋषी के श्राप के कारण सारे देवता लक्ष्मी, और शक्ती हीन हो बेठे थे,
और उधर से असुर निरन्तर उनसे युद्ध करते रहते थे।

अपनी दीन-हीन हालत से त्रस्त हो सभी देवता त्रिदेवों के पास गये,
त्रिदेवों ने सलाह दि उनको वापस बल को तुमको अमृत पान करना होगा।
अमृत हासिल करने को समुद्र को मथना होगा।
यह आसन नही होगा क्युकी , इसमे भाग असुरो को भी लेना होगा।

जब सारे देवता-असुर मान गये समुद्र मथने को,
तब दिक्कत थी आन पड़ी , समुद्र को मथने को इतना विशाल मथना और नेती कहाँ मिलेगा।

तब बोले विष्णू सुदर्शन को जाओ मन्दराचल को काट लाओं, मन्दराचल पर्वत ही अब मथनी होगा।
शिव ने वासुकी को आदेश किया तुम नेती का कार्य करों।

मथनी और नेती को पाकर जब मंथन था शुरु हुआ,
विकट समस्या आनी पड़ी थी पर्वत समुद्र की गहराई मे अंदर धसता जाता था,
और वासुकी का मुँह विषेली अग्नी छोड़े जाता था।

वासुकी को भगवन ने गहन निंद्रा मे सुला दिया,
और पर्वत को धंसने से बचाने को कुर्म का अवतार लिया।

कष्ट हरा वासुकी का प्रभू ने,उसको निंद्रा देकरके,
मंथन को आसान बनाया अपना दुजा अवतार कुर्म का ले करके।

कुर्म अवतार की पीठ पर मन्दराचल को रखा गया,
मंथन का आरंभ वापस फिर शुरु किया गया।

मंथन से निकली चीजों के समान बंटवारे का काम ब्रह्मा जी को
बिना भेद-भाव के आपसी सहमती से दिया गया।

मंथन से सबसे पहले ऐरावत का आगमन हुआ,
ऐरावत को देवराज इन्द्र को सौंपा गया।

फिर मंथन से कामधेनु नामक गैया आई थी,
जिसको ब्रह्मा ने ऋषियों को था दान किया।

मंथन से फिर उच्चे-श्रीवा नाम का अश्व निकला था,
जिसको ब्रह्मा ने दैत्यराज बली को सौंप दिया।

तीन दिव्य वस्तुओं के बाद फिर कौस्तुभ मणि थी प्रकट हुई
जिसको नारायण ने अपने मस्तक पर धारण किया।

फिर मंथन से कल्पवृक्ष का आगमन हुआ,
जो स्वर्ग लोक मे रखा गया।

अगला आगमन हुआ रंभा का, जो की एक अप्सरा थी,
जिसे स्वर्गलोक को भेजा गया।

फिर माता लक्ष्मी का मंथन से आगमन हुआ ,
माता को सम्मान के साथ नारायण को सौंपा गया।

लक्ष्मी के आगमन के साथ ही स्वर्ग और देवताओ की सम्पत्ति वापस थी आई,
इसको लेकर फिर असुरों ने पक्षपात का इल्जाम दियाँ।

ब्रह्मा बोले अब जो अगली वस्तु आयेगी उनपर असुरों का हक होगा,
आगमन हुआ वारुणी का फिर , जो असुरो की प्रिय बनी।
मादकता लिये हुई यह वारुणी ही मदिरा बनी।

अगला आगमन हुआ चंद्र का, जो निर्मल , शान्ति का रूप था
मिला चंद्रमा को स्वामित्व रात्रि का, रातें रोशन करने को।

फिर पारिजात मंथन से प्रकट हुआ,
जो ऋषियों को वरदान मिला।

अगला आगमन हुआ शंख का,
जो नारायण को दिया गया।

फिर जो आया मंथन से वो बड़ा विकराल था,
कहते हैं, हलाहल उसका नाम था।

एक बूँद से जिसकी सारी सृष्टि नष्ट हो सकती थी,
कौन धारण करता उसको इतनी किसकी हस्ती थी।

तब महादेव ने हलाहल का पान करके संसार का कल्याण किया,
विष को कंठ मे धरा प्रभू ने, इसलिये नारायण ने शिव को नीलकंठ था नाम दिया।

अन्त मे सागर से धनवंतरी अमृत कलश लेकर अवतरित हुएँ,
अमृत को देख सारे असूर उनके पीछे दोड़ पड़े।

अमृत कलश को लेकर धनवंतरी भागे भागे जाते थे,
और सारे असूर उनके पीछे दौडे जाते थे।

इसी बीच अमृत की कुछ बुंदे पृथ्वी पर भी गिरने लगी,
हरिद्वार, उज्जैन, नाशिक और इलाहबाद वर्तमान के नाम हैं उनके जहाँ पे अमृत छलका था।

इसीलिये इन स्थानो पर हर 12 वर्षो मे कुंभ का मेला लगता हैं,
जहाँ साधू-सन्यासीयों का बड़ा ही जमघट जमता हैं।

अमृत को धनवंतरी से छुड़ा कर असुरो ने था हथयाया,
फिर सब देवो ने सोचा अब अमृत कैसे हासिल हो।

अगर असुरों ने अमृत का सेवन कर डाला,
तो विकट समस्या आयेगी , सृष्टि बसने से पहले ही उजाड दी जायेगी।

अन्त भी मुश्किल हो जायेगा अमृत पान के बाद मे,
हम तो मारे ही जायेंगे, किसी रोज तकरार मे।

सबने जाकर नारायण के सम्मुख अपनी बात रखी,
नारायण ने कहाँ की मैं कुछ उपाय समझाता हूँ।
तुम पहुँचो असुरों के पास मे मैं, भी पीछे आता हूं।

तब विष्णू ने सबसे मोहित मोहिनी का रूप लिया,
असुरों के सम्मुख जाकर सम्मोहन का कार्य किया।

मोहिनी के उस रूप के आगे सारे असुर अचंभित थे,
मोहिनी को पाने के लिए सबके सब लालायित थे।

तब मोहिनी बोली , आप यह कलश मुझे दे दो,
मैं बारी बारी से असुरो और देवो को अपने हाथों से ही अमृत पान कराउँगी।

सभी ने उसकी बातो को सच माना,
फिर अमृत कलश को मोहिनी ने था थामा।

बारी बारी मोहिनी देवो को अमृत पान कराती थी,
और बड़ी चालाकी से असुरों को मदिरा पान कराती थी।

मोहिनी की इस चालाकी को राहु नामक असुर ने जान लिया,
धरकर रूप देवो का उसने देवो के बीच स्थान लिया।

फिर जब मोहिनी उसको अमृत पान करा ने लगी,
तभी सुर्य ने चीख के बोला यह तो एक असुर हैं स्वामी रूप बदल कर बैठा हैं।

तब नारायण ने अपना रूप धरा, देखके नारायण को राहु था भागने लगा,
नारायण ने सुदर्शन से फिर उसके उपर छोड़ा था, सुदर्शन ने उसको दो हिस्सों मे बांट दिया।

तब फिर महादेव ने आकर नारायण को रौका था,
बोले प्रभू नारायण इसने हैं, अमृत पान किया,
अमर हैं अब यह भी देवो की तरह,
इसका अन्त असम्भव हैं।

जितने भागो मे बाटोगे इसे यह उतनी ही हानी पहुचायेगा,
दो भाग मे बंट चुका हैं अब यह, अब सिर इसका राहु और धड़ केतू कहलायेगा।

यह कथा हैं, समुद्र मंथन की,
मंथन से निकले चौदह रत्नो की,
एक गहरी बात सिखाती हैं।

खुद को हमको पाना हैं,
तो खुद को हमको मथना होगा।

अपनी हर एक अच्छी और बुरी बातों को,
खुद मे ही परखना होगा।

हर बुराई का हलाहल की भाती,
अपने अन्दर ही अन्त करना होगा।

अमृत रुपी अच्छाई को, सबमे ही,
घुलना होगा।

आयुष पंचोली
Ayush pancholi

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