एक थी राजकुमारी ,बहुत ही नाजुक चंचल सी,
कुन्तल राज्य मे जन्मी और कुन्ती वह कहलाई थी।
ऋषी दुर्वासा से जिसने पाया था वरदान,
मन्त्र शक्ती से प्राप्त करने का संतान।
कुँवारे पन मे ही इतना बडा वरदान जो पाया,
उसके मन मे उस वरदान का प्रयोग करने का एक विचार फिर आया।
किया ध्यान सूर्यदेव का,
और सूर्यपुत्र कर्ण को पाया।
जन्म से ही कर्ण मे व्याप्त थी कुछ शक्तियाँ,
उसकी रक्षा की खातिर अंग से जुड़े आये थे,
कवच, कुण्डल और कुछ सिद्धियां।
बिना ब्याह रचाये ही ,वरदान की शक्ती से था जो पुत्र पाया,
त्यागना पड़ा उसे कुन्ती को, विधाता ने था क्या खेल रचाया।
कुन्ती द्वारा त्यागे गए पुत्र को ,एक सुत कन्या राधा ने था अपनाया,
कौन्तेय और सूर्यपुत्र होते हुएँ भी, जो बरसों तक राधेय कहलाया।
ब्राह्मण शिरोमणि, शिव थे जिनके गुरु जिनके ईष्ट, ऐसे महान योद्धा ,
परशुराम को जिस राधेय ने कई कड़ी परीक्षाओ से और एक झूट के माध्यम से अपना गुरु था बनाया।
अजेय गुरु से शिक्षा पाई थी उसने शस्त्र और धनुर्विध्या की,
पर अपने झुट का एक श्राप भी पाया, क्रोधवश गुरु ने कह दिया तेरी विद्या तू जायेगा तब भुल, जब होगी तुझे जरुरत उसकी भरपुर।
शिक्षा और ज्ञान को अर्जित करके भी वह हर जगह अपमान ही सहते आया,
श्रेष्ठ धनुर्धर होकर भी वो हर जगह, हर सभा मे सिर्फ सुतपुत्र ही कहलाया।
अपना प्यार भी जिसने ,इस एक कारण से खो दिया,
ऐसे मे सिर्फ सुयोधन ही था जिसने उसका साथ दियां।
मित्रता की खातिर जिसने हार होगी जानते हुएँ भी बहुत घनघोर युद्ध किया,
असंख्य वीरो को जिसने पल मे ही था अपने बल से पराजित किया।
जब समस्या आन पड़ी कर्ण का वध कैसे हो,
जब उसकी रक्षा ही सुर्य के कवच और कुण्डल करते हो।
था बहुत बड़ा दानी वो, उसके इस दानी रूप का कृष्ण ने फायदा उठाना चाहा,
ले रूप एक ब्राह्मण का दान मे माँगकर उससे वो द्वारका का राजा , कवच कुण्डल ही ले आया।
रही सही एक कसर कुन्ती ने भी ना छोडी,जाकर उसके समक्ष सारा सच वो उस समय बोली,
अपने पुत्रो पर प्रहार ना करने का दान उसने भी उससे माँगा, देखो दानवीर था वो कैसा, खुद को ही दान कर आया।
अगले दिन जब कुरुक्षेत्र मे रणभेरी फिरसे गुंजि,
कर्ण ने खोया सबकुछ अपना, फिर भी वचन को पूजा,
सहता रहा प्रहार पाण्डवो के और अपनी विद्या को भुला।
उस दिन एक महान योद्धा ने अपना जीवन खोया था,
जिसकी मृत्यू पर वहाँ का हर एक कण कण भी रोया था।
कृष्ण ने पुछा जब अन्तिम इच्छा अपनी बतला दो,
कहदो तुम तो मैं तुमको तुम्हारा जीवन फिरसे लौटा दूँ।
पर उस वीर ने एक अजब सा दान कृष्ण से माँगा,
वहाँ अंत्येष्टि हो मेरी जहाँ कभी कोई पाप नही हुआ हो,
कृष्ण ने उसका मान रखा , उसको उस जगह चड़ाया,
देखो कैसे कृष्ण ने कर्ण को अपने हाथो पर था जलाया।
क्या योद्धा था, कर्ण भी देखो , क्या मुक्ति उसने पाई थी,
स्वयं त्रिलोकाधीपती ने ही जिसकी देह अपने हाथो पर जलाई थी।
इससे बढकर मुक्ति कभी भी कोई पा ना सकेगा,
कर्ण जैसा कोई योद्धा कभी फिर दोबारा आ ना सकेगा....!!!!!
आयुष पंचोली
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