हर वो व्यक्ति जो अपना कार्य पूर्ण निष्टा, भक्ति, समर्पण,धैर्य और श्रद्धा के साथ करता हैं, वो साधक हैं। और उसका कार्य ही उसकी साधना।
कर्म,धर्म,नृत्य,ज्ञान, कई रूप हैं साधना के और उतने ही साधक हैं। किसने साधना को किस रूप मे साधा और उससे क्या पाया,यह महत्व नही रखता। महत्व रखता हैं, उस व्यक्ति की उस साधना को प्राप्त करने के प्रति की गई श्रद्धा, समर्पण, धैर्य और निष्टा की वो अभिव्यक्ति, जो उसने उसे प्राप्त करने मे लगाई।
साधना का मूल मन्त्र हैं , खुद को साधना।
जिस व्यक्ति ने खुद को साध लिया, उसके लियें फिर कुछ और साधना बहुत ही सरल हो जाता हैं।
साधना अर्थात किसी कार्य पर खुद का नियन्त्रण प्राप्त करना, उसे अपने अनुसार कर लेना। और जिसका मन और शरीर उसके अधीन उसके अनुसार हो गये उसने खुद को साध लिया।
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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