हिरन्कश्यपु नाम का था एक राक्षस,
अपने भाई के वध की आग मे जो जलता राहता था।
नारायण ने वराह रूप धरकर के उसके भाई हिरण्याक्ष का वध जो किया था,
इसी एक कारण से उसने नारायण से बैर किया था ।
किया एक प्रण उसने की, मैं अजेय होके रहूँगा,
नारायण को करके पराजित त्रिलोकाधिपति बनूँगा।
घोर तपस्या की वर्षो तक उसने, ब्रह्मा को था रिझाया,
पाया अनोखा वरदान था उसने,"ना मनुष्य, ना पशु से"
"ना ही किसी अस्त्र , ना ही किसी शस्त्र से"
"ना ही सूर्योदय के पहले, ना ही सूर्योदय के बाद"
"ना घर के अन्दर, ना ही घर के बाहर"
उसका वध सम्भव हो।
पाया जो वरदान अमरता के समान फिर उसने सबकुछ पाया,
देखते देखते उसने स्वर्ग पर विजय पताका लहराया।
सम्पुर्ण लोको को बनाके अपने अधीन वो था,
अजेय शक्ती के मद मे इठलाया ।
जनम लिया एक बालक ने जब उसके आँगन मे,
सोचा नही था उसने ,वह बालक नारायण की भक्ति करेगा।
नाम रखा प्रहलाद पुत्र का, उसको दैत्य गुरु से शिक्षा दिलाना चाही,
पर उस बालक ने तो हर पल हरी नाम की ही ज्योत जलाई।
बहुत मनाया , बहुत रिझाया , बहुत से कष्ट थे ढाये,
पर बालक के मन से वो श्री हरी को मिटा ना पाये।
बालक हर पल बस नारायण को ही, भजता रहता था,
उसका सबकुछ बस नारायण की भक्ति से ही चलता था।
हिरन्कश्यपू सह ना पाया उसके पुत्र का अपने शत्रु को जपना,
उसने फिर अपनी बहना होलिका को बुलावा भेजा।
होलिका को वरदान मिला था, आग से वो ना जलेगी,
उसने बनाकर एक चिता ,होलिका की गोद मे प्रहलाद को बिठाया।
ताकी अन्त हो जाये इस नारायण भक्त का,
और नारायण का नाम ही संसार से गुम हो जाये।
पर महिमा देखो नारायण नाम की, भक्त को अग्नी स्पर्श भी कर ना पाई,
वरदान को पाकर भी होलिका, उस अग्नी मे ही अपने अन्त को पाई।
फिर उस राक्षस ने पुत्र को दीवार मे चुनवाने का ही आदेश दिया जब,
भक्त की भक्ति के मान को रखने नारायण जागे तब।
फाड़ के खम्भा देखो कैसे अपने चतुर्थ अवतार मे श्री विष्णू पधारे,
क्या भयंकर रूप था उनका, "धड नर का और सर सिंह का" देख कर सब जन डर के अपने आंगन को सिधारे ।
भरा क्रोध आँखो मे उनकी ,हर किसी ने साफ़ झलकता देखा,
जय नरसिंह देव अवतार की कह कर सब हाथ जोड़े खड़े थे।
और नरसिंह झट से हिरन्कश्य्पू की और बड़े थे।
उठा लिया उसको उन्होने, और घर की देहली पर ले जाकर,
जाँग पे अपनी लेटाया,गोधुली बेला का समय था वो,
उस वक्त उसकी छाती को उन्होने अपने नाख़ूनो से छलनी कर डाला।
हुआ था वध उस समय हिरन्कश्यपु का, रख मान ब्रह्मा के वरदान का,
रख मान भक्त की आन का, पर सिंह समान जो क्रोध भरा था वह बड़ा ही प्रचण्ड था।
उसके समक्ष उस समय सब ही शत्रु नजर आते थे,
उस भयंकर रूप से डरकर देव, नर, पशु, पक्षी सभी भागे जाते थे।
सबने मिलकर फिर नारायण की तरफ रुख अपना मोडा,
नारायण ने कहाँ की जाओ अब जाकर सब शिव को अपनी व्यथा सुनाओ।
वही हैं जो नरसिंह के क्रोध को शाँत कर सकते हैं,
वरना अन्त निकट हैं आया,इस क्रोध की अग्नी मे अब सभी जलेंगे।
सबने जाकर महादेव से अपनी व्यथा सुनाई,
महादेव ने तब वीरभद्र के द्वारा नरसिंह को रोकना चाहा ।
बहुत दिनो तक दोनो का घनघोर युध्द चला था,
फिर जाकर महादेव ने सर्वेश्वर रूप धरा था।
नर, सिंह और चील की शक्ती से युक्त यह रूप बड़ा ही विकट था,
जब उन चील पंखो से उत्पन्न देवी प्रत्यंगीरा ने नरसिंह को निगलना चाहा ,
तब फिर जाकर नरसिंह भगवान को अपनी भुल समझ मे आई ,
भुल के पश्चाताप के लिये वह देह त्याग का निर्णय कर बैठे।
महादेव से फिर उन्होने ही अपनी चर्म धारण करने का वचन लिया था।
देह त्याग कर नरसिंह फिर नारायण मे जाके समाये,
नरसिंह की चर्म को धारण कर ,महादेव बाघम्बर कहलाये।
इसी तरह से श्री हरी विष्णू के एक रूप की लीला रची गई थी,
नरसिंह और सर्वेश्वर रुपी महाशक्ति की गाथा रची गई थी।
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आयुष पंचोली
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