प्रेम क्या हैं..? क्या वर्तमान मे जो चल रहा हैं, उसे प्रेम कह सकते हैं?
प्रेम क्या हैं, यह शायद लोगो की समझ से भी परे होगा। अगर बात की जायें तो प्रेम पूर्णतया भक्ति का ही एक रूप हैं।
जिस तरह भक्ति, मे कोई तर्क नही होता, कोई समझ नही होती, सिर्फ अपने ईष्ट के प्रति समर्पण का भाव होता हैं। चाहे जिस भी रूप मे हो, वह पाक पवित्र ही होती हैं। निस्छलता से परिपूर्ण। अपूर्ण होकर भी पुर्ण।
ठीक ऐसा ही प्रेम भी हैं, जो हर प्रकार के दोषो से दूर हैं, अपूर्ण होकर भी वह सम्पुर्ण हैं। कोई दिखावा नही हैं, कोई भेद नही हैं। अपने प्रिय को सम्पुर्ण समर्पणता के भाव से ओत प्रोत, निस्छल्ता से पुर्ण, पाक पवित्रता से युक्त रिश्ता ही प्रेम हैं, जहां कोई छोटा बड़ा नही होता, कोई अहं नही होता। बस होता हैं, समर्पण मन का, तन का, भावों का, अभिव्यक्ति का उसे जो आपका हैं, चाहे फिर वह मनुष्य हो या कोई देव। प्रेम अभिव्यक्ति की आजादी हैं, कोई बन्धन नही हैं प्रेम। प्रेम जिस्मों से परे, एक बन्धन हैं। जिसे किसी नाम, किसी बन्धन की कोई जरुरत ही नही।
और अगर देखा जाये तो वर्तमान मे प्रेम कही नही हैं, प्रेम के नाम पर सिर्फ दिखावा हो रहा हैं। इसे प्रेम नही कहतें । वैसे भी आज लोग, प्रेम को समझ सकते नही। उन्हे, प्यार, इश्क और मोहब्बत मे अपना वक्त बिताना हैं। और अगर देखा जाये तो, प्यार, इश्क और मोहब्बत प्रेम से पूर्णतया अलग ही हैं।
इनके लफ्जी मायनो से ही इनके अस्तित्व को आप समझिये,
जैसे मोहब्बत, अर्थात् वह इबादत जो मोह के साथ, मोह के वश की जाये वह हैं मोहब्बत। और जहां मोह हैं, वहां ना समर्पण होगा ना ही भरोसा ना ही पवित्रता, वहां सिर्फ और सिर्फ एक बन्धन होगा, जो प्रेम नही हैं।
ठीक उसी प्रकार अगर प्यार की बात की जाये तो, जो अपने पूर्ण होने के लिये बार बार यार बदले वह हैं प्यार। और जो अपनी पूर्णता की खातिर ही लड़ता रहे वहां प्रेम कहां रहेगा, वहां बस जीवन पर्यन्त एक खोज ही रहेगी, किसके साथ मैं पुर्ण हूं, कौन मुझे पुर्ण कर सकता हैं। यहं भी वही हैं, विश्वास, समर्पण और पवित्रता का अभाव और प्रेम तो अपूर्ण होकर भी सदा पुर्ण ही रहा हैं। तो फिये कैसे कोई प्यार को प्रेम कहदे।
ठीक ऐसा ही अगर इश्क की बात करे तो वह, भी एक आसक्ति ही हैं। आसक्ति अर्थात् मन का लगाव, जो कही ना कही, किसी ना किसी से हर किसी को रहता हैं। मगर यह लगाव मे भी बात हांसिल करने की आ जाती हैं। व्यक्ति हर सम्भव प्रयास करता हैं, उसे हासिल करने का जिससे उसे लगाव हो। और बात फिर वही आई यहां भी फिर आता हैं, वही बन्धन। और प्रेम कभी हासिल करना सिखाता नही।
तो फ़िर आप कैसे कह सकते हैं, प्रेम ही प्यार , मोहब्बत और इश्क हैं। यह प्रेम के अंश मात्र भी नही हैं। प्रेम की परिभाषा के, प्रेम के अस्तित्व के एहसास से भी कोसो दूर हैं यह तो।
शायद इसलिये ही, प्रेम को राधा-कृष्ण , राम-सीता, शिव-शक्ती से जोड़ा गया हैं । जहां भक्ति और समर्पण का पुर्ण रूप विध्य्मान हैं। जहां एक ही दुसरे का अस्तित्व हैं। बिना एक के कोई भी पुर्ण नही, और वहां अपनी अपूर्णता को भी पुर्ण करने की कोई होड़ नही।
शायद मैं गलत हो सकता हूं। मगर प्रेम वह तो नही हैं, जो आज हो रहा हैं। आज सिर्फ ढोंग, दिखावा और वासना का नाच हो रहा हैं। इसे प्रेम नही कहां जा सकता।
आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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