हाँ सच हैं यह....
मैं ठोकर खाकर ही चलना सीखा हूं,
धोखे खाकर ही जीना सीखा हूं।
अब हैरत नही होती मुझको,
दुनिया को बदलते देखकर।
मैं अपनी खुशियों को मरघट मे,
दफना करके निकला हूँ।
सबको दूर ही छोड़ आया मैं,
सबसे रिश्ता तोड़ आया मैं,
हाँ मैं खोकर सबको,
खुद को पाने निकला हूं।
फ़र्क नही पड़ता अब मुझको,
दुनियावालों की बातों का।
बनकर एक तमाशा दुनिया मे,
कोई किस्सा बनकर निकला हूँ।
हाँ सच हैं यह.....
टूटा भी मैं, बिखरा भी मैं,
खुद ही मे था उलझा भी मैं,
अब खुद ही निखरने निकला हूं।
मैं क्या हूं यह पता नही हैं,
मैं क्या था , अब भूल चुका हूं।
मैं खुद को खुद ही से मथने,
मंथन करने निकला हूँ ।
क्या खोया, क्या पाया मैने,
अब तक कितने अरमानो को हैं,
सूली पर चड़ाया मैंने।
अब सारे सपनों को भुलाकर,
अपना कहने वाले अपनो के,
अपनेपन को भुलाकर,
अपनी पहचान बनाने निकला हूं।
भला हूं मैं, या बुरा हूं मैं,
जिन्दा हूं या हूँ कहीं गुम हुआ सा मैं।
पता नही मुझे कुछ भी, क्या हूँ,
क्या हो गया हूं, क्या और होने वाला हूं मैं।
अब रोना छोड़ दिया हैं हालातो पर,
जानता हूँ इस नश्वर सत्ता मे जो कुछ भी हैं पाया,
वह सब एक ना एक दिन खोने वाला हूं मैं।
बस शुन्य की खोज मे निकल पढ़ा हूं,
जानता हूं उसी मैं विलीन होने वाला हूं मैं।
हाँ सच हैं यह.....
बदल गया हूं मैं,
क्योकी जान गया हूं,
पाया ही क्या हैं मैने,
जो शौक मनाऊँ की कुछ खोने वाला हूं मैं।
अनन्त के ,
अन्त मे ,
अन्त को हैं जो,
अन्तिम बिंदु ,
हां उसी अन्त को पाकर पूर्ण होने वाला हूं मैं।
हां हूँ मैं अपूर्ण और सदैव रहूँगा,
पूर्णता को शून्यता से बेहतर जो समझने वाला हूं मैं।
©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi
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