क्या हैं- धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष...!!
हमारा आध्यात्मिक इतिहास बहुत बड़ा रहा हैं। ना जाने कितनी ही सभ्यताये आई और चली गई, मगर हमारे अस्तित्व को कभी डिगा नही पाई। कितने ही लोगो ने हमारे धार्मिक ग्रंथो से छेड़खानी करकर, कितने ही तथ्यों को बदल दिया। यहां तक की कुछ ऐसी दकियानुसी बातें भी हमारे आराध्य देवताओ के बारे मे फैलायी गई जो किसी भी रूप मे सत्य कभी हो ही नही सकती। खैर जो भी हो जहाँ, आस्था होती हैं, वहाँ तर्क का कोई काम नही रहता । और अगर कोई आपको गलत मानकर ही बैठ जायें कुछ सुनना ही ना चाहे तो, वहां तार्किक होने और तथ्यों को रखने का भी कभी कोई महत्व नही रह जाता।
हाँ बात हो रही थी, की धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष क्या हैं...!
तो इसका सीधा साधा जवाब हैं, यह हैं हमारे सनातनी इतिहास के आधार स्तम्भ। हर युग सतयुग से लेकर कलयुग तक , सभी मे इनका अपना महत्व रहा हैं। हाँ यह बात और हैं, की हर युग मे एक गुण प्रधान रहा हैं, जो उसका कारक भी हुआ और संहारक भी।
अब अगर बात की जाये धर्म की तो धर्म से अभिप्राय हैं, मत से। मत अर्थात् आप किस मत को मानने वाले हो, किस देव को मानने वाले हो। और आप अपने देव से क्या शिक्षा लेकर उस धर्म को किस रूप मे धारण कर रहे हो। सीधे सच्चे शब्दों मे कहाँ जाये तो धर्म का मतलब होगा धारणा। अर्थात् एक को धारण करना, उसकी शिक्षा अनुसार जीवन व्यतीत करना । यही धर्म का मूल हमेशा से रहा हैं, और यही उसका सार भी हैं।
ठीक उसी प्रकार अर्थ से अभिप्राय हैं, जीवनोपार्जन के तरीकों से। जो हर युग मे बदलते रहे हैं। अर्थ, मे वह सबकुछ आ गया जिससे आपका जीवनोपार्जंन सम्पुर्ण हो सके । मगर कलयुग मे अर्थ का सिर्फ और सिर्फ एक ही मतलब निकलता हैं, और वह हैं धन।
अब बात करे काम की, काम से अभिप्राय यहां कर्म से नही, वरन भोग से हैं। भोग अर्थात् हर उस चीज का उपभोग जो आपको आनन्द प्रदान करें । आपके जीवन को सुगम बनाये और उसे माया से जोड़े रखे। मगर कलयुग मे काम का अर्थ सिर्फ सम्भोग ही हैं।
वैसे ही मोक्ष अर्थात् आत्मा को परमगती दिलवाने का मार्ग। आत्मा का उसके मूल स्वरूप मे विलिन हो जाना ही मोक्ष कहलाता हैं।
और इन्ही 4 स्तम्भो पर निर्भर होकर ही हमारा अस्तित्व आज तक सुरक्षित रहा हैं। जो अब डगमगाने लगा हैं। क्योकी अगर जीवन को जीना हैं, तो संतुलन बनाये रखना जरुरी होता हैं। और अगर वह संतुलन बिगड़ा तो अन्त निश्चित हैँ । यही युगो के अन्त का भी कारण रहा हैं।
अब यह कैसे तो, उसके लिये हमे थोड़ा विचार करना पड़ेगा ।
जैसे -
सतयुग था , सतयुग मे धर्म भी था, धर्म के मतावलंबी भी थे, अर्थ भी था ,काम भी था, और मोक्ष भी था। मगर सतयुग मे हर कोई मोक्ष ही चाहता था, तो काम और अर्थ को त्यागकर लोग वैरागी हो जाते थे। अब अगर काम ही नही होगा तो, सृष्टि आगे कैसे बडेगी । और एक बार बैरागी होने के बाद, इन्सान भूख, प्यास की अवस्था सिर्फ उसके शरीर को चलाने पुर्ती ही लेता हैं। जो उसे आसानी से वनो से प्राप्त हो जाती थी। अब सभी लोग वैराग्य धारण कर मोक्ष प्राप्ती के लिये, समाधी मे लीन हो जायेंगे तो, सृष्टि चलेगी कैसे। इसका क्रम बड़ेगा कैसे। जिससे संतुलन बिगडा और, मोक्ष का लालच ही सतयुग के अन्त का कारण बना।
ठीक वैसे ही त्रैतायुग मे भी सबकुछ था, मगर वहां लोगो ने धर्म को इतना अधिक रूप मे अपना लिया की, बाकी सभी चीजो का संतुलन हो डगमगा गया। राम राज्य ऐसा चला की, लोग हर प्रकार से सम्पन्न थे, तो कर्म को किसी ने कुछ जाना नही, सिर्फ धर्म के नाम के सहारे जीवन यापन चलता रहा। और जैसे हो राम राज्य गया, वह धर्म इसलिये कुछ नही कर पाया क्योकी कर्म कुछ रहा नही। जिस कारण फ़िर संतुलन बिगडा और त्रैतायुग के अन्त का कारण बना।
फिर आया द्वापर युग, जिसे श्री कृष्ण का युग भी कहते हैं। जहां पर भी सबकुछ था। और यहां कर्म की महत्ता क्या हैं, यह समझाने के लिये ही कृष्ण को अर्जुन को गीता का ज्ञान देना पढ़ा, ताकी कोई भी व्यक्ति, सिर्फ धर्म और भाग्य को सबकुछ मानकर ना बैठे। कर्म की महत्ता को भी जाने, क्योकी कर्म प्रधान समाज ही धर्म के महत्व को समझ सकता हैं। श्री कृष्ण ने द्वापर युग मे बहुत सी लिलायें रची। और उनके देह त्यागने के बाद, द्वापर के अन्त का कारण ही वो कर्म बना जो अधर्म का सूचक हो गया। अर्थात् राजा परीक्षित के पुत्र द्वारा पिता को मिले श्राप के निराकरण के लिये सम्पूर्ण नाग प्रजाति का नाश कर देना। और यही कर्म द्वापर के अन्त का कारण बना।
फ़िर आया कलयुग, जो बीते तीनो युगो की बुराईयों को खुद मे समेटे था। या यूँ कहे अपने आप मे ही श्रापीत युग बना। जहां ना धर्म हैं, ना ही मोक्ष का कोई समबन्ध। बस लोग अर्थ और काम के पीछे पागल हैं। अर्थ का मतलब यहां धन से हैं, और उसी अर्थ के लिये, हर प्रकार का घृणित कर्म कर, धर्म को पुर्ण रूप से अधर्म मे परिवर्तित कर दिया हैं। और काम वासना मे लोग इतने अन्धे हो चुके हैं, की उन्हे मोक्ष से कोई मतलब ही नही हैं। यहां सबकुछ होते हुएँ भी कुछ नही नही। बस लोग अधर्म और काम मे इस तरह लिप्त हैं, की धर्म खुद रो रहा हैं, यह कैसा युग मे ले आया। और यही अर्थ का लोभ और काम वासना का रोग ही कलयुग के अन्त का कारण साबित होगा।
ऐसा कोई युग कभी रहा ही नही जिसमे कोई बुराई ना हो। क्योकी अगर बुराई नही होगी , तो उसका अन्त कैसे होगा। मगर कलयुग ऐसा हैं, जहां कोई अच्छाई नही हैं। अभी शुरुवात हैं, आने वाला समय कैसा होगा इसकी हम कल्पना भी नही कर सकते हैं। क्योकी जो सीख हम आज अपनी पीढ़ी को दे रहे हैं, वह उनकी पीढ़ी तक किस रूप मे किस तरह परिवर्तित होकर पहुचेगी इसका अन्दाजा भी हम नही लगा सकते। बस देखते जाओ, कलयुग को धीरे-धीरे अपनी चरम सीमा पर पहुचते हुएँ और, धर्म का अन्त होते हुएँ ।
यह लेख सिर्फ मेरी निजी सोच, मेरे निजी विचार हैं। किसी को अगर कोई आपत्ति हो या किसी प्रकार की कोई क्षति पहुची हो या कोई बात बुरी लगी हो तो क्षमा किजियेगा।🙏🙏🙏
©आयुष पंचोली
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