Thursday, August 22, 2019

33 प्रकार के पूजित देवता

33 प्रकार के देवता जो भिन्न रूपो मे पूजित हैं।

1- 🕉 जो प्रथम बीज हैं।
2- शिव - जो शुन्य और 🕉 का मूल हैं।
3- विष्णु - जो 🕉 का आकार हैं।
4 -शक्ती - जो 🕉 की गती हैं।
5- ब्रह्मा - सृष्टि के रचियता।
6- तत्व - अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश।
7 -सूर्य - ऊर्जा के कारक।
8 -चंद्र - शीतलता के कारक।
9 -ग्रह - जिनसे सबकुछ चल रहा हैं।
10 -नक्षत्र - जो गतिमान ग्रहो की शक्ती हैं।
11- इन्द्र - देवो के जो ईश हैं।
12- गन्धर्व - जो कला के कारक हैं।
13 -यक्ष - जो सकारात्मकता और नकरात्मक्ता दोनो के कारक और परीक्षक हैं।
14- गणेश - जो सभी प्रकार के गणो के कारक हैं।
15- यम - जो मृत्यू के कारक हैं।
16 -नाग - जो सृष्टि का भार उठाये हैं।
17 -मरुद्गन - जो कार्य का प्रभार बांटते हैं।
18- क्षेत्रपाल - जो क्षेत्र मे किसका प्रवेश होगा यह निश्चित करते हैं।
19- पित्र - जो ब्रह्मा के बाद और देवो के ऊपर हैं।
20 -विश्वकर्मा - जो श्रष्टी के कारीगर हैं।
21- रुद्र - जो संहारक हैं।
22- काल - जो निरन्तर गतिमान हैं।
23- प्रजापती - जो हर आयाम मे बदल जाते हैं।
24 -मनु- जो कार्य और वर्ण के अनुसार निर्धारण करते हैं।
25 -वास्तुदेव - पुर्ण भूमि पुरुष।
26 -नद , नदियाँ और सागर - जो जीव उत्पति का प्रथम स्थान हैं।
27- कुल देव - जो कुल के रक्षक हैं।
28 -कुल देवी - जो कुल की प्रगती हैं।
29- वनस्पति - जो जीवन यापन का मूल साधन हैं।
30- जीवात्मा - जिसमे जीव(जान) हैंं।
31 -युग - जो अन्त के बाद फिर उतपन्न होते हैं।
32 -शास्त्र - जो सम्पुर्ण ज्ञान का साधन हैं।
33 -संस्कार - जो जीवन से मृत्यू पर्यन्त चलते हैं , जिनमे जीवन और मृत्यू भी एक हैं।
यहाँ पर कुछ महात्मा 10 दिक्पाल को भी लेते हैं।

यह कुल 33 प्रकार से विभाजित हैं। जो अलग अलग रूपों मे पूजित हैं, जिनकी संख्या 33 करोड़ हो जाती हैं। मगर शिव, विष्णु और शक्ती यही तीन मुख्य हैं, जिनसे सबकुछ हैं। और वह सबकुछ ही  🕉 हैं। 🙏🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Monday, August 19, 2019

दशावतार

जब जब धर्म की होंने लगती हैं हानि,
धरती पर बढने लगते हैं, अधर्मी मनुष्य और अभिमानी ।
रोती हैं जब यह धरती माता खून के आँसू,
गोओ का रूदन जब चित्कार मचाता हैं।
तब हरने को पीड़ा इनकी,
काल उतर कर युग परिवर्तन करने आता हैं।
तब तब अवतरित होकर निराकार का परम अंश,
धरकर कितने ही विविध रूप अपनी सर्वोच्च सत्ता की महानता का एहसास सबको कराता हैं।
अन्त करके वो अधर्मीयों का,
धर्म को स्थापित फिर करके सृष्टि का भार उठाता हैं।
यही सदा से होता आया, यही सदा होने वाला हैं,
पाप का अन्त होकर रहता हैं, यहीं सत्य हैं जो घटित हैं होने वाला।
इस नश्वर सृष्टि मे कुछ भी नही हैं रहने वाला,
वही शून्य हैं जो रचता सबकुछ , सभी उस शून्य मे ही विलिन हैं होने वाला।
कितने ही युग बीत चुके हैं, कितने ही और बीत जायेंगे,
जो कल थे वो आज नही हैं, जो आज मे हैं वो कही कल हो जायेंगे।
यह चक्र अनवरत चलता रहता, यह कालचक्र कहलाता हैं,
काल के गर्भ से उतपन्न काल को एक दिन पाता हैं।

था सबसे पहले सतयुग, जहाँ सत्य ही सबसे बढ़कर था,
ज्ञान और मोक्ष ही जिसका मूल आधार स्तम्भ था।
देव भी थे वहां पर, असुर भी थे,
देवताओ के थे राजा इन्द्र, असुरो के राजा भी बली महान थे।
था एक असूर हयग्रीव नाम का, अश्व का सर और मानव का धड़ ,
बड़ा अधम अभिमानी और बडा ही बलवान बलवान था।
धर्म के नाश के हेतु उस दानव ने पापजनित एक कार्य किया,
सारे वेदो को ले जाकर समुद्र मे था कही छुपा दिया।
जब वेद कही गुम हो बैठे , तब ब्रह्मा जी जागे।
ज्ञान का कैसे अन्त हो गया, आने वाला समय कैसा होगा,
यह विचारकर देवो सन्ग नारायण के दर पर भागे।
कर स्तुति नारायण की अपनी विपत्ति सब कहने लगे,
वेदो की रक्षा और पून्ह स्थापन को विनती उनसे करने लगें।
तब उस परं शक्ती धरकर रूप एक मछली का,
वेदो को समुद्र से फिर हांसिल था किया।
करकर संहार हयग्रीव का, दानवो का था दमन किया,
सोंपकर उनको बृह्मा को फ़िर ज्ञान को था सुरक्षित किया।
यह अवतार उस परम शक्ती का प्रथम अवतार कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे मत्स्य अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

फिर कुछ काल बीत चुके थे, सबकुछ स्थिर सा चलता था,
पर काल की करनी को काल गी समझ बस सकता था।
इन्द्र ने अपने मोहके वश, शिव के अन्शावतार ऋषी दुर्वासा का अपमान किया,
क्रोध मे भरकर उन ऋषिवर ने समस्त देवताओ को श्रीहीन होने का था श्राप दिया।
श्री से वंचित सभी देवता बड़े ही दुर्बल हो बेठे,
खोकर अपनी सम्पत्ति और शक्ती असुरो से पराजित हो बैठे।
तब उन सबने जाकर फिरसे बृह्मा और नारायण की शरण माँगी,
नारायण ने उनकी करनी की युति के समाधान को पाने को फिर जाकर शिव से सलाह माँगी।
सबने अपने विचार रखे ,तब समुद्र मथने का निर्णय लिया गया,
देवताओ को शक्तीहीन जानकर, देत्यो को भी समुद्र मंथन मे शामिल किया गया।
उस विशाल क्षीर को मथने को, मन्दराचल पर्वत को मथनी और नागराज वासुकी को नेती बनना पढ़ा।
इतना विशाल पर्वत जब समुद्र की गहराई मे था समाने लगा,
तब समुद्र मंथन को सफल बनाने और देवताओ को अपना पद दिलवाने को,
उस परमशक्ती को धरकर रूप कच्छप का, मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करना पढ़ा।
देवताओ के उद्धार के लिये, लिया गया यह कच्छप अवतार नारायण का द्वितीय कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे कुर्म अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

फिर युग धीरे-धीरे बढने लगा, धर्म का भी विकास होने लगा,
दैत्यो का निरन्तर संहार होने लगा।
दैत्यो को देवो के आगे पराजित पाकर,
हिरनकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो महाशाली दैत्य भ्राताओ ने,
फिर धरती को पृताडित किया,
अपनी असूरी शक्ती के बल पर देवताओ को भयभीत किया।
हिरण्याक्ष ने अपनी भुजाओ का बल पाकर ,
पृथ्वी को जल मे समा दिया।
ऐसा कर्म किया उस अधम ने चारो और चित्कार मचा।
तब धरती को जल से वापस लाने को,
उस परम शक्ती ने धारण वाराह अवतार किया।
कर संहार उस अधम अभिमानी का,
धरती को जल से वापस मुक्त किया।
जीवो के उद्धार के लिये , लिया गया यह जंगली शुकर अवतार नारायण का तृतीय अवतार कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे वाराह अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

अपने अनुज भ्राता को मिली मुक्ति से अवसादीत,
हिरन्कश्यपू बहुत क्रोधित हो बैठा।
पाने को वरदान अमरत्व का भजने ब्रह्मा को बैठा।
कई हजार वर्षो की तपस्या से उसने यह फल पाया,
बड़ा विचित्र वरदान समान अमरत्व के ही था पाया।
वह अनुज के वध से क्रोधित हो नारायण से नफरत करता था,
नारायण को पूजने वाला हर कोई उसको शत्रु लगता था।
उसके कुल मे ही घटित एक विचित्र अनहोनी हो बैठी,
उसकी ही सन्तान वहां नारायण प्रेमी हो बैठी।
जब उसके समझाने पर भी पुत्र प्रह्लाद ने नारायण को भजना ना छोड़ा,
आवेश मे आकार उस नराधम ने प्रह्लाद को जिन्दा मृत्यू के सुपुर्द करने को खंब मे चुनवाने को बोला।
भक्त की विवश पुकार को सुनकर परम शक्ती नरसिंह अवतार धारण कर वहाँ खंब फाड़कर प्रकट हुई,
क्या विचित्र काया थी उसकी सर सिंह का धड़ मनुष्य का, क्या खुब प्रभू की यह माया हुई।
अपने भक्त की रक्षा करके हिरन्कश्यपू का उस अवतारित शक्ती नरसिंह ने संहार किया,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने नारायण के चतुर्थ अवतार के रूप मे पूजित बारम्बार किया।

फ़िर कुछ समय बीत जाने पर दैत्य राज बली ने तीनों लोको को जीत कर अपने अतुल पराक्रम से देवो को शर्मसार किया,
अपने राज्य को वापस पाने को देवो ने फ़िर नारायण को याद किया।
एक समय जब दैत्यराज बली ने महान यज्ञ का अनुष्ठान किया,
देकर दान दक्षिणा सभी ब्राह्मणो का था सम्मान किया।
तब उस परम शक्ती ने ऋषी कश्यप के तप से दक्ष कन्या अदिती के गर्भ से उतपन्न हो,
धारण वामन अवतार किया।
जाकर राजा बली के समक्ष दान मे तीन पग भूमी का अटल उन्ही से वचन लिया।
तीन पगो मे उस वामन रूपी अवतार पुरुष ने तीनो लोको को नाप लिया।
वापस इस अद्भूत युक्ति से उस परम शक्ती ने देवो फिर उनका अधिकार दिया।
एक बार फिर पुनः धर्म की रक्षा की खातिर नारायण ने यह कैसा अद्भूत चमत्कार किया,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने नारायण के पंचम वामन अवतार के रूप मे शिरोधार्य किया।

समय बीतते बीतते पृथ्वी पर राजा बहुत से हो बैठे,
भार बड़ा पृथ्वी का इतना की शेष भी दर्द से कराह बैठे।
असंख्य क्षत्रिय वीरों से उस समय पृथ्वी शोभा पाती थी,
पर अपने हालात पर खून के आंसू बहाती थी।
हर जगह युद्ध के क्रूर कृन्दन सुनाई देते थे,
रक्त रंजीत पृथ्वी के भू-भाग दिखाई देते थे।
तब पृथ्वी के भार को हरने उस परमशक्ती ने,
ऋषी जमदग्नी के अतुल शौर्य से माँ रेणुका के गर्भ से उतपन्न हो,
परशुराम अवतार लिया।
करकर संहार क्षत्रिय वीरों का,
और क्षत्रिय वीर क्षिरोमणी सन्हसत्रार्जून का पृथ्वी का उन्होने भार हरा।
पृथ्वी के उस करुण पुकार को हरने को प्रभू ने अपना ष्स्ठ ब्राह्मण वंश शिरोमणी,
श्री परशुराम अवतार लिया।
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने बृह्म शिरोमणी का ताज दिया।

फ़िर समय बीतते बीतते 24 वा त्रैतायुग आया,
जहां भयंकर प्रलय राक्षस राज रावण ने था दिखलाया।
तब करने को अन्त असुरो का प्रभू ने फ़िर चमत्कार किया,
पुरुषो मे जो उत्तम कहलाया, वह राम अवतार लिया।
अयोध्या के राजा दशरथ के महान प्रताप से और माता कौशल्या के गर्भ से,
उतपन्न हो प्रभू ने रामावतार लिया।
यह राम अवतार पुरूषो मे सबसे उत्तम कहलाया,
वचन और मर्यादा का महान पाठ जिसने दुनिया को सिखलाया।
धर्म धुरंधर राम प्रतापी, अयोध्या से निकले जब करने शत्रुओ का संहार,
दशो दिशाये मिलकर करने लगी थी, उनका आदर सत्कार।
कितनी ही लीलाये प्रभू ने राम रूप मे दिखलाई,
मनुष्य की पीड़ा की गहराई भी सहकर बतलाई।
वानरो की सेना को साथ ले प्रभू ने फ़िर कोहराम किया,
राक्षसो का कर संहार प्रभू ने राक्षस राज रावण को अपना परम धाम दिया।
प्रभू का यह अवतार हिन्दुत्व की मान मर्यादा का रक्षक हैं,
हिन्दूओ मे राम आराध्य हैं, शिव जपते जिनको निरन्तर हैं।
यह परम शक्ती कलयुग मे मुक्ति का एक लौता मार्ग हैं,
जिनके नाम मे ही समाया निराकार ब्रह्म का राज हैं।
यह नारायण का परम पुरुष सप्तम अवतार राम के नाम से पूजा जाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म का पुर्ण आधार माना जाता हैं।

फ़िर आया युग द्वापर का जहां होना कुछ बड़ा निर्धारित था,
पृथ्वी रही थी पुकार प्रभू को हरने उतरो भार,
बड़ती जा रही हैं वीर मनुष्यो की संख्या बारम्बार।
बोझ से होगई मे बेहाल।
तभी आया युग 28 वा द्वापर,
धरकर आये प्रभू रूप अनुपम।
वसुदेव को बनाके पिता,
देवकी को माना माता।
हुआ अवतार बड़ा अद्भूत,
नाम था कृष्ण करता था जो सबको विस्मृत।
जिन्होने बिखरे हुएँ यदुवंश को जोड़ा,
कंस के घमंड को तोड़ा ।
कितने अधर्मीयों का किया संहार ।
उग्रसेन को पहनाया यदुवंश के सर का ताज।
जिन्होने करने को पृथ्वी का कार्य,
करकर बहुत विचार,
महाभारत को रच डाला ,
जहां हुआ था असंख्य क्षत्रियों का संहार।
दिया कुरुक्षेत्र मे अद्भूत गीता का ज्ञान,
जो हैं हर ज्ञान मे सबसे महान ।
प्रभू के अवतारों मे श्रेष्ठ परम अवतार हुआ था जो,
श्रीकृष्ण के नाम से पूजित वसुदेव का लाल हुआ था जो।
नारायण का अष्ठम अवतार जो था सभी कलाओ का सार,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने माना हर पल अद्भूत ज्ञान का आधार।

अब हुआ यहां कुछ यूँ की असमंजस मे सब रहते,
कौनसा हैं प्रभू का नवम अवतार।
जिसे कहते हैं व्यास अवतार या फ़िर बुद्ध अवतार।
बुद्ध का मतलब ही हैं ज्ञान, जिसने जाना सत्य को महान,
किया हैं शून्य का ज्ञान वही कहलायेग बुद्ध अवतार महान।
यहां एक ही बुद्ध हो यह हो नही सकता,
किसे कहूँ प्रभू का नवम अवतार , जो वर्णित हुआ पुराणों मे, ता जिसको सभी मानते हैं,
भागवत पुराण अजीन पुत्र को बुद्ध मानती हैं,
भविष्य पुराण गौतम पुत्र को बुद्ध मानती हैं,
कल्की पुराण शुद्दोधन पुत्र को बुद्ध मानती हैं।
मतलब अवतार तो बुद्ध ही हैं,
मगर असमंजस इतना क्यो।
जहां हो ज्ञान शून्य का निरन्तर ,
जहां परम तत्व प्राप्त हो जायें।
वही समझ लेना बुद्ध अवतार का साक्षात्कार हो जाये ।

वर्तमान मे जो घटित हैं हो रहा, इसे सब कलयुग कहते  हैं,
कलयुग के अन्त मे सब ग्रंथ प्रभू के अन्तिम दशम अवतार का अवतरण कहते हैं।
जब आयेगा घोर कलयुग, हर तरफ़ सिर्फ अन्धकार ही होगा,
हर जगह पृताडित होंगे सज्जन, वेदो का बस उपहास ही होगा।
जब ज्ञान यहाँ अन्त हो जायेगा, गंगा का जल खो जायेगा,
सब तीर्थ कही छुप जायेंगे, जब हर तरफ अन्याय ही नजर आयेगा।
तब करने की अन्त युगों का प्रभू कल्की का रूप धारण करके आयेंगे।
करकर संहार असुरो का, धर्म की फिरसे अलख जगायेंगे।
यह कल्की अवतार प्रभू का अन्तिम परमअवतार कहलायेगा ।
इसके अवतरित होने के कुछ सालों बाद कलयुग का अन्त हो जायेगा।
सम्पुर्ण धरा जलमग्न होके अपना अस्तित्व गंवा देगी।
जीवो की हर एक प्रजाति सम्पुर्ण समूल नष्ट हो जायेगी।

फिर होगा एक नया आरम्भ, नया सतयुग फ़िर आयेगा।
काल चक्र का चक्र सदा अनवरत ही चलता जायेगा।
अन्त होगा, फिर होगा आरम्भ,
हर आरम्भ फिर अन्त को पायेगा।
बस यही हैं सत्य सब नश्वर हैं,
शून्य से हैं, शून्य मे ही विलिन हो जायेगा।
फ़िर आरम्भ होगा पुनःशून्य से,
फ़िर अन्त होकर पुनःशून्य मे समा जायेगा।
काल का चक्र अनवरत चलता रहेगा,
जो शून्य हैं बस वही सदा रह जायेगा.....!!!!!!!🙏🙏🙏🙏🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Sunday, August 18, 2019

हाँ सच हैं यह....!!!

हाँ सच हैं यह....

मैं ठोकर खाकर ही चलना सीखा हूं,
धोखे खाकर ही जीना सीखा हूं।
अब हैरत नही होती मुझको,
दुनिया को बदलते देखकर।
मैं अपनी खुशियों को मरघट मे,
दफना करके निकला हूँ।
सबको दूर ही छोड़ आया मैं,
सबसे रिश्ता तोड़ आया मैं,
हाँ मैं खोकर सबको,
खुद को पाने निकला हूं।
फ़र्क नही पड़ता अब मुझको,
दुनियावालों की बातों का।
बनकर एक तमाशा दुनिया मे,
कोई किस्सा बनकर निकला हूँ।
हाँ सच हैं यह.....
टूटा भी मैं, बिखरा भी मैं,
खुद ही मे था उलझा भी मैं,
अब खुद ही निखरने निकला हूं।
मैं क्या हूं यह पता नही हैं,
मैं क्या था , अब भूल चुका हूं।
मैं खुद को खुद ही से मथने,
मंथन करने निकला हूँ ।
क्या खोया, क्या पाया मैने,
अब तक कितने अरमानो को हैं,
सूली पर चड़ाया मैंने।
अब सारे सपनों को भुलाकर,
अपना कहने वाले अपनो के,
अपनेपन को भुलाकर,
अपनी पहचान बनाने निकला हूं।
भला हूं मैं, या बुरा हूं मैं,
जिन्दा हूं या हूँ कहीं गुम हुआ सा मैं।
पता नही मुझे कुछ भी, क्या हूँ,
क्या हो गया हूं, क्या और होने वाला हूं मैं।
अब रोना छोड़ दिया हैं हालातो पर,
जानता हूँ इस नश्वर सत्ता मे जो कुछ भी हैं पाया,
वह सब एक ना एक दिन खोने वाला हूं मैं।
बस शुन्य की खोज मे निकल पढ़ा हूं,
जानता हूं उसी मैं विलीन होने वाला हूं मैं।

हाँ सच हैं यह.....
बदल गया हूं मैं,
क्योकी जान गया हूं,
पाया ही क्या हैं मैने,
जो शौक मनाऊँ की कुछ खोने वाला हूं मैं।
अनन्त के ,
अन्त मे ,
अन्त को हैं जो,
अन्तिम बिंदु ,
हां उसी अन्त को पाकर पूर्ण होने वाला हूं मैं।
हां हूँ मैं अपूर्ण और सदैव रहूँगा,
पूर्णता को शून्यता से बेहतर जो समझने वाला हूं मैं।

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Tuesday, August 13, 2019

कालगणना

कालगणना-१ : काल का खगोल से सम्बंध

इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं। इनका उत्तर पाने के लिए लिए सबसे पहले काल को समझना पड़ेगा। काल जिसके द्वारा हम घटनाओं-परिवर्तनों को नापते हैं, कबसे प्रारंभ हुआ?
इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं।
आधुनिक काल के प्रख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने इस पर एक पुस्तक लिखी - brief history of time (समय का संक्षिप्त इतिहास)। उस पुस्तक में वह लिखता है कि समय कब से प्रारंभ हुआ। वह लिखता है कि सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए जब ब्रह्माण्डोत्पति की कारणीभूत घटना आदिद्रव्य में बिग बैंग (महाविस्फोट) हुआ और इस विस्फोट के साथ ही अव्यक्त अवस्था से ब्रह्माण्ड व्यक्त अवस्था में आने लगा। इसी के साथ समय भी उत्पन्न हुआ। अत: सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए और समय कब तक रहेगा, तो जब तक यह सृष्टि रहेगी, तब तक रहेगा, उसके लोप के साथ लोप होगा। दूसरा प्रश्न कि सृष्टि के पूर्व क्या था? इसके उत्तर में हॉकिन्स कहता है कि वह आज अज्ञात है। पर इसे जानने का एक साधन हो सकता है। कोई तारा जब मरता है तो उसका र्इंधन प्रकाश और ऊर्जा के रूप में समाप्त होने लगता है। तब वह सिकुड़ने लगता है। और भारतवर्ष में ऋषियों ने इस पर चिंतन किया, साक्षात्कार किया। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया कि तब न सत् था न असत् था, न परमाणु था न आकाश, तो उस समय क्या था? तब न मृत्यु थी, न अमरत्व था, न दिन था, न रात थी। उस समय स्पंदन शक्ति युक्त वह एक तत्व था।

सृष्टि पूर्व अंधकार से अंधकार ढंका हुआ था और तप की शक्ति से युक्त एक तत्व था। सर्वप्रथम
हमारे यहां ऋषियों ने काल की परिभाषा करते हुए कहा है "कलयति सर्वाणि भूतानि", जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड को, सृष्टि को खा जाता है। साथ ही कहा कि यह ब्रह्माण्ड एक बार बना और नष्ट हुआ, ऐसा नहीं होता। अपितु उत्पत्ति और लय पुन: उत्पत्ति और लय यह चक्र चलता रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, परिवर्तन और लय के रूप में विराट कालचक्र चल रहा है। काल के इस सर्वग्रासी रूप का वर्णन भारत में और पश्चिम में अनेक कवियों ने किया है। हमारे यहां इसको व्यक्त करते हुए महाकवि क्षेमेन्द्र कहते हैं-

अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्ते तिसंतता:।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ता: पर्वता इव।।

अर्थात्-काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। पश्चिम में 1990 में नोबल पुरस्कार प्राप्त कवि आक्टोवियो पाज अपनी कविता Into the matter में काल के सर्वभक्षी रूप का वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं।

A clock strikes the time
now its time
it is not time now, not it is now
now it is time to get rid of time
now it is not time
it is time and not now
time eats the now
now its time
windows close
walls closed doors close
the words gøo home
Nowwe are more alone..........1

अर्थात्

"काल यंत्र बताता है काल
आ गया आज, काल।
आज में काल नहीं, काल में आज नहीं,
काल को विदा देने का काल है आज।
काल है, आज नहीं,
काल निगलता है आज को।
आज है वह काल
वातायन बंद हो रहे हैं
दीवार है बंद
द्वार बन्द हो रहे हैं
वैखरी पहुंच रही है स्व निकेत
हम तो अब हैं अकेले"

इस काल को नापने का सूक्ष्मतम और महत्तम माप हमारे यहां कहा गया है।

श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि जब राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, काल क्या है? उसका सूक्ष्मतम और महत्तम रूप क्या है? तब इस प्रश्न का शुकदेव मुनि जो उत्तर देते हैं वह आश्चर्य जनक है, क्योंकि आज के आधुनिक युग में हम जानते हैं कि काल अमूर्त तत्व है। घटने वाली घटनाओं से हम उसे जानते हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व शुकदेव मुनि ने कहा- "विषयों का रूपान्तर" (बदलना) ही काल का आकार है। उसी को निमित्त बना वह काल तत्व अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है।"

काल गणना 
इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है तथा महत्तम अंश ब्राहृ आयु है। इसको विस्तार से बताते हुए शुक मुनि उसके विभिन्न माप बताते हैं:-

2 परमाणु- 1 अणु - 15 लघु - 1 नाड़िका
3 अणु - 1 त्रसरेणु - 2 नाड़िका - 1 मुहूत्र्त
3 त्रसरेणु- 1 त्रुटि - 30 मुहूत्र्त - 1 दिन रात
100 त्रुटि- 1 वेध - 7 दिन रात - 1 सप्ताह
3 वेध - 1 लव - 2 सप्ताह - 1 पक्ष
3 लव- 1 निमेष - 2 पक्ष - 1 मास
3 निमेष- 1 क्षण - 2 मास - 1 ऋतु
5 क्षण- 1 काष्ठा - 3 ऋतु - 1 अयन
15 काष्ठा - 1 लघु - 2 अयन - 1 वर्ष

शुक मुनि की गणना से एक दिन रात में 3280500000 परमाणु काल होते हैं तथा एक दिन रात में 86400 सेकेण्ड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी 1 परमाणु काल 1 सेकंड का 37968 वां हिस्सा।

महाभारत के मोक्षपर्व में अ. 231 में कालगणना - निम्न है:-

15 निमेष - 1 काष्ठा
30 काष्ठा -1 कला
30 कला- 1 मुहूत्र्त
30 मुहूत्र्त- 1 दिन रात

दोनों गणनाओं में थोड़ा अन्तर है। शुक मुनि के हिसाब से 1 मुहूर्त में 450 काष्ठा होती है तथा महाभारत की गणना के हिसाब से 1 मुहूर्त में 900 काष्ठा होती हैं। यह गणना की भिन्न पद्धतियों को परिलक्षित करती है।

यह सामान्य गणना के लिए माप है। पर ब्रह्माण्ड की आयु के लिए, ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों को मापने के लिए बड़ी

कलियुग - 432000 वर्ष
2 कलियुग - द्वापरयुग - 864000 वर्ष
3 कलियुग - त्रेतायुग - 1296000 वर्ष
4 कलियुग - सतयुग - 1728000 वर्ष

चारों युगों की 1 चतुर्युगी - 4320000
71 चतुर्युगी का एक मन्वंतर - 306720000
14 मन्वंतर तथा संध्यांश के 15 सतयुग
का एक कल्प यानी - 4320000000 वर्ष

एक कल्प यानी ब्रह्मा का एक दिन, उतनी ही बड़ी उनकी रात इस प्रकार 100 वर्ष तक एक ब्रह्मा की आयु। और जब एक ब्रह्मा मरता है तो भगवान विष्णु का एक निमेष (आंख की पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं) होता है और विष्णु के बाद रुद्र का काल आरम्भ होता है, जो स्वयं कालरूप है और अनंत है, इसीलिए कहा जाता है कि काल अनन्त है।

शुकदेव महामुनि द्वारा वर्णित इस वर्णन को पढ़कर मन में प्रश्न आ सकता है कि ये सब वर्णन कपोलकल्पना है, बुद्धिविलास है। आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों की क्या अहमियत है। परन्तु ये सब वर्ण कपोलकल्पना नहीं अपितु इसका सम्बंध खगोल के साथ है। भारतीय कालगणना खगोल पिण्डों की गति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रतिपल, प्रतिदिन होने वाले उसके परिवर्तनों, उसकी गति के आधार पर यानी ठोस वैज्ञानिक सच्चाईयों के आधार पर निर्धारित हुई है। जबकि आज विश्व में प्रचलित ईसवी सन् की कालगणना में केवल एक बात वैज्ञानिक है कि उसका वर्ष पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय पर आधारित है। बाकी उसमें माह तथा दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई सम्बंध नहीं है। जबकि भारतीय गणना का प्रतिक्षण, प्रतिदिन, खगोलीय गति से सम्बंध है।

कालगणना-२ पश्चिमी और भारतीय कालगणना का अंतर

पाश्चात्य कालगणना
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका Vol 3-1964 में कैलेंडर के संदर्भ में उसके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया गया है। कैलेंडर यानी समय विभाजन का तरीका-वर्ष, मास, दिन, का आधार, पृथ्वी की गति और चन्द्र की गति के आधार पर करना। लैटिन में Moon के लिए Luna शब्द है, अत: Lunar Month कहते हैं। लैटिन में Sun के लिए Sol शब्द है, अत: Solar Year वर्ष कहते हैं। आजकल इसका माप 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट व 46 सेकेण्ड है। चूंकि सौर वर्ष और चन्द्रमास का तालमेल नहीं है, अत: अनेक देशों में गड़बड़ रही।

दूसरी बात, समय का विभाजन ऐतिहासिक घटना के आधार पर करना। ईसाई मानते हैं कि ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है, इस आधार पर इतिहास को वे दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक बी.सी. तथा दूसरा ए.डी.। B.C. का अर्थ है Before Christ - यह ईसा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुर्इं उन्हें A.D. कहा जाता है जिसका अर्थ है Anno Domini अर्थात् In the year of our Lord. यह अलग बात है कि यह पद्धति ईसा के जन्म के बाद कुछ सदी तक प्रयोग में नहीं आती थी। 

रोमन कैलेण्डर-आज के ई। सन् का मूल रोमन संवत् है जो ईसा के जन्म से 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसमें दस माह का वर्ष होता था, जो मार्च से दिसम्बर तक चलता था तथा 304 दिन होते थे। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने इसमें दो माह Jonu Arius और Februarius जोड़कर वर्ष 12 माह का बनाया तथा इसमें दिन हुए 355, पर आगे के वर्षों में ग्रहीय गति से इनका अंतर बढ़ता गया, तब इसे ठीक 46 बी.सी. करने के लिए जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने हेतु नये कैलेंडर का आदेश दिया तथा उस समय के वर्ष को कहा कि इसमें 445 1/4 दिन होंगे ताकि पूर्व में आया अंतर ठीक हो सके। इसलिए उस वर्ष यानी 46 बी.सी. को इतिहास में संभ्रम का वर्ष (Year of confusion) कहते हैं।

जूलियन कैलेंडर- जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने के लिए एक व्यवस्था दी। क्रम से 31 व 30 दिन के माह निर्धारित किए तथा फरवरी 29 दिन की। Leap Year में फरवरी भी 30 दिन की कर दी। इसी के साथ इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए उसने वर्ष के सातवें महीने के पुराने नाम Quinitiles को बदलकर अपने नाम पर जुलाई किया, जो 31 दिन का था। बाद में सम्राट आगस्टस हुआ; उसने भी अपना नाम इतिहास में अमर करने हेतु आठवें महीने Sextilis का नाम बदलकर उस माह का नाम अगस्त किया। उस समय अगस्त 30 दिन का होता था पर-"सीजर से मैं छोटा नहीं", यह दिखाने के लिए फरवरी के माह जो उस समय 29 दिन का होता था जो एक दिन लेकर अगस्त भी 31 दिन का किया। तब से मास और दिन की संख्या वैसी ही चली आ रही है।

ग्रेगोरियन कैलेंडर - 16वीं सदी में जूलियन कैलेन्डर में 10 दिन बढ़ गए और चर्च फेस्टीवल ईस्टर आदि गड़बड़ आने लगे, तब पोप ग्रेगोरी त्रयोदश ने 1582 के वर्ष में इसे ठीक करने के लिए यह हुक्म जारी किया कि 4 अक्तूबर को आगे 15 अक्तूबर माना जाए। वर्ष का आरम्भ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से करने को कहा। रोमन कैथोलिकों ने पोप के आदेश को तुरन्त माना, पर प्रोटेस्टेंटों ने धीरे-धीरे माना। ब्रिाटेन जूलियन कैलेंडर मानता रहा और 1752 तक उसमें 11 दिन का अंतर आ गया। अत: उसे ठीक करने के लिए 2 सितम्बर के बाद अगला दिन 14 सितम्बर कहा गया। उस समय लोग नारा लगाते थे "Criseus back our 11 days"। इग्लैण्ड के बाद बुल्गारिया ने 1918 में और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च ने 1924 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर माना।

भारत में कालगणना का इतिहास

भारतवर्ष में ग्रहीय गतियों का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा रही है तथा कालगणना पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र और सूर्य गति के अंतर को पाटने की भी व्यवस्था अधिक मास आदि द्वारा होती रही है। संक्षेप में काल की विभिन्न इकाइयां एवं उनके कारण निम्न प्रकार से बताये गये-

दिन अथवा वार- सात दिन- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की गति से घूमती है, इस चक्र को पूरा करने में उसे २४ घंटे का समय लगता है। इसमें १२ घंटे पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अह: तथा जो पीछे रहता है उसे रात्र कहा गया। इस प्रकार १२ घंटे पृथ्वी का पूर्वार्द्ध तथा १२ घंटे उत्तरार्द्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी भाषा का ण्दृद्वद्ध शब्द ही होरा का अपभ्रंश रूप है। सावन दिन को भू दिन भी कहा गया।

सौर दिन-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 1 लाख कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 10 चलन सौर दिन कहलाता है।

चान्द्र दिन या तिथि- चान्द्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम्, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चन्द्र का 12 अंश तक चलन एक तिथि कहलाता है।

सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारत वर्ष में खोजे गए क्रम के अनुसार ही हैं। भारत में पृथ्वी से उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित किया गया, यथा- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा। इनमें चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे पास है तो शनि सबसे दूर। इसमें एक-एक ग्रह दिन के 24 घंटों या होरा में एक-एक घंटे का अधिपति रहता है। अत: क्रम से सातों ग्रह एक-एक घंटे अधिपति, यह चक्र चलता रहता है और 24 घंटे पूरे होने पर अगले दिन के पहले घंटे का जो अधिपति ग्रह होगा, उसके नाम पर दिन का नाम रखा गया। सूर्य से सृष्टि हुई, अत: प्रथम दिन रविवार मानकर ऊपर क्रम से शेष वारों का नाम रखा गया।

पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश चलना एक तिथि कहलाता है। अमावस्या को चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे ० (अंश) कहते हैं। यहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश अंतर पर आता है, तो उसे पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार एकम्‌ से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है तथा एकम्‌ से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।

मास- कालगणना के लिए आकाशस्थ २७ नक्षत्र माने गए (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्व फाल्गुन (१२) उत्तर फाल्गुन (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ (२१) उत्तराषाढ़ (२२) श्रवणा (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषाक (२५) पूर्व भाद्रपद (२६) उत्तर भाद्रपद (२७) रेवती।

२७ नक्षत्रों में प्रत्येक के चार पाद किए गए। इस प्रकार कुल १०८ पाद हुए। इनमें से नौ पाद की आकृति के अनुसार १२ राशियों के नाम रखे गए, जो निम्नानुसार हैं-

(१) मेष (२) वृष (३) मिथुन (४) कर्क (५) सिंह (६) कन्या (७) तुला (८) वृश्चिक (९) धनु (१०) मकर (११) कुंभ (१२) मीन। पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई, जिसे क्रांति कहते है। ये क्रांतियां विषुव वृत्त रेखा से २४ उत्तर में तथा २४ दक्षिण में मानी जाती हैं। इस प्रकार सूर्य अपने परिभ्रमण में जिस राशि चक्र में आता है, उस क्रांति के नाम पर सौर मास है। यह साधारणत: वृद्धि तथा क्षय से रहित है।

चान्द्र मास- जो नक्षत्र मास भर सायंकाल से प्रात: काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे, उस नक्षत्र के नाम पर चान्द्र मासों के नाम पड़े हैं- (१) चित्रा (२) विशाखा (३) ज्येष्ठा (४) अषाढ़ा (५) श्रवण (६) भाद्रपद (७) अश्विनी (८) कृत्तिका (९) मृगशिरा (१०) पुष्य (११) मघा (१२) फाल्गुनी। अत: इसी आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन-ये चन्द्र मासों के नाम पड़े।

उत्तरायण और दक्षिणायन-पृथ्वी अपनी कक्षा पर २३ ह अंश उत्तर पश्चिमी में झुकी हुई है। अत: भूमध्य रेखा से २३ ह अंश उत्तर व दक्षिण में सूर्य की किरणें लम्बवत्‌ पड़ती हैं। सूर्य किरणों का लम्बवत्‌ पड़ना संक्रान्ति कहलाता है। इसमें २३ ह अंश उत्तर को कर्क रेखा कहा जाता है तथा दक्षिण को मकर रेखा कहा जाता है। भूमध्य रेखा को ०० अथवा विषुव वृत्त रेखा कहते हैं। इसमें कर्क संक्रान्ति को उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति को दक्षिणायन कहते हैं।

वर्षमान- पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग एक लाख कि.मी. प्रति घंटे की गति से १६६०००००० कि.मी. लम्बे पथ का ३६५ ह दिन में एक चक्र पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया। 

आदि से अंत तक जानने की अनूठी भारतीय विधि

युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।

वर्तमान कलियुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। उस समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे। इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन दृष्टव्य है-

"हिन्दुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरम्भ ईसा के जन्म से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेण्ड तक की गई। आगे वे यानी हिन्दू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पञ्चांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राहृणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।"। (Theogony of Hindus, by Bjornstjerna P. 32)

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।

मन्वन्तर मान- सूर्य मण्डल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष। एक से दूसरे मन्वन्तर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है। अत: संध्यांश सहित मन्वन्तर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाश गंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया। यानी इसका माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात, अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष
ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्माण्ड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,000000000 वर्ष)

भारतीय मनीषा की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञानी कार्ल सेगन ने अपनी पुस्तक "क्दृद्मथ्र्दृद्म" में कहा "विश्व में हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो इस विश्वास पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहत्तम माप, जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्राहृ दिन रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लम्बी गणना के माप है।" कार्ल सेगन ने इसे संयोग कहा है यह ठोस ग्रहीय गणना पर आधारित है।

ऋषियों की अद्भुत खोज
हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो- गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।

संकल्प मंत्र में कहते हैं.... 
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे- अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं। श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।

कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है।

कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।

जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम

अमुक स्थाने - कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय
अमुक - व्यक्ति - अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।

इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, उस समय से अनंत काल तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।

काल की सापेक्षता - आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है।

समय छोटा-बड़ा रहता है। इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। पुराणों में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके। जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं? ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा, जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना। साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी। यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय में पीछे जाना और पूर्वजन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

पश्चिमी जगत में जार्ज गेमोव ने अपनी पुस्तक one, two, three, infinity में इस समय में आगे-पीछे जाने के संदर्भ में एक विनोदी कविता लिखी थी-

There was a young girl named liss Bright
who could travel much faster than light
She departed one day
in an Einstein way
and came back on the previous night

अर्थात्- एक युवा लड़की, जिसका नाम मिस ब्राइट था, वह प्रकाश से भी अधिक वेग से यात्रा कर सकती थी। एक दिन वह आइंस्टीन विधि से यात्रा पर निकली और बीती रात्रि में वापस लौट आई। 
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