प्रेम और भक्ति मनुष्य जीवन के दो आधार स्तम्भ। दोनो ही एक दुसरे से पुर्ण रूप से जुड़े हैं। ना ही भक्ति प्रेम से पृथक हैं, ना ही प्रेम भक्ति से। यहाँ बात प्रेम की हो रही हैं, जो की शाश्वत प्रेम हैं, आज कल का आधुनिक प्रेम नही।
हाँ प्रेम जो एक इंसान को एक आत्मा को दुसरी आत्मा से जोडता हैं। जैसे भक्ति एक मनुष्य को अपने ईश्वर अपने कर्म से जोडती हैं।
जैसे प्रेम सिर्फ जज्बातों और एहसासो का बन्धन हैं, ठीक उसी प्रकार भक्ति विश्वास और श्रद्धा का ।
भक्ति और प्रेम दोनो ही तर्को से परहेज ही रखते हैं। तर्क मे उलझ कर ना ही भक्ति को पाया जा सकता हैं, और ना ही प्रेम को।
और जहाँ प्रेम और भक्ति एक साथ उमड़ पड़ते हैं वहाँ होता हैं समर्पण। सिर्फ प्रेम मे या सिर्फ भक्ति मे समर्पण कदापि सम्भव नही हैं। उसके लिए प्रेम और भक्ति का एक साथ होना आवश्यक हैं।
जैसे एक देशभक्त अपने आपको अपनी मातृभूमि को समर्पित कर देता हैं। उस समय उसके अन्दर उस देश के लिये प्रेम होता हैं, और उस माटी और अपने कर्म के लिये भक्ति, तब जाकर वह अपने आपको समर्पित कर पाता हैं।
ठीक उसी प्रकार अगर कोई कहता हैं, मैं ईश्वर को समर्पित हूँ। तो उसे सिर्फ उस ईश्वर से प्रेम हैं, और ईश्वर भक्ति ही उसका सबकुछ हैं , और जब वह खुद को उस ईश्वर के अनुरूप ढाल पाता हैं, तभी उसका असल मायनो मे कहना उचित होगा की वह ईश्वर को समर्पित हैं , वरना उसकी बातों का कोई महत्व नही हैं।
समर्पण का मार्ग कठिन हैं,
प्रेम का आश्रय चाहता यह
भक्ति का हैं साथ मांगता,
अन्तःकरण उजियाता यह।
तर्क वितर्क से परे हैं रहता,
दिव्य-प्रेम कहलाता यह।
कोई क्या समझेगा इसको,
बड़ा कठिन सम्मान यह।
जिसको जीवन मे मिल जाये,
जीवन उसका महान हैं........!
आयुष पंचोली
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