Saturday, September 19, 2020

कर्म क्या हैं....?

ऐसा कोई भी कार्य जो सिर्फ पेट भरने और परिवार पालने के लिये होता उसे "कर्म" नही कहते, वह सिर्फ रोजगार कहलाता हैं। "कर्म" की श्रेणी मे वही कार्य आता हैं, जिससे जीव, मानव व प्रकृति की किसी भी रूप मे सेवा हो सकें। और यही "धर्म" अनुसार "कर्म" की व्याख्या हैं। जो सिर्फ जीव, मानव और प्रकृति की सेवा को ही कर्म की संज्ञा देती हैं।

जैसे कोई व्यक्ति अगर हवन, पूजन, ध्यान लगाकर जीव, मानव और प्रकृति की सेवा कर रहा हैं, बिना किसी को कुछ नुकसान पहुचायें और सात्विक जीवन यापन करते हुएँ तो वह कर्म ब्राह्मण कर्म कहलायेगा।

ठीक इसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति जीव और मानव रक्षा व प्रकृति की सुरक्षा मे अपना सर्वस्व बलिदान करके भी अगर किसी को उन्हे कोई नुकसान नही पहूचाने देता, यह क्षत्रिय कर्म कहलाता हैं।

ऐसे ही प्रकृति से प्राप्त तत्वो, रसायनो, औषधियों और विभिन्न वस्तुओं को जीव व मानव कल्याण मे लगाकर सदैव प्रकृति से उन्हे व उन्हे प्रकृति से जोड़कर रखना वैश्य कर्म कहलाता हैं।

और जीव, मानव और प्रकृति की सेवा किसी भी रूप मे करना ताकी हम उस परं शक्ती का अनुभव कही और ना करते हुएँ प्राणी मात्र व प्रकृति के सानिध्य मे कर सकें शूद्र कर्म कहलाता हैं।

यहां कोई कर्म ना ही किसी से बड़ा हैं, नही कोई कर्म किसी से छोटा। मगर फ़िर भी क्यो हम जात-पात मे बट कर अपनो से ही घृणा करते हैं समझ नही आता। क्योकी एक सत्य तो यह भी हैं की हर मन्वंतर मे 7 ही सप्तर्षि होते हैं। और उन्ही से जन्म का चक्र आरम्भ होता हैं। अगर आपके अनुरूप वह सभी ब्राह्मण हैं। तो फिर देखा जाये तो हर कोई उन्ही की सन्तान हुआ, तो सभी ब्राह्मण हो गयें। क्योकी गौत्र तो सात ही हैं। उनके प्रवर अलग अलग हो सकते हैं।

और शायद सच कहूँ तो सनातन धर्म ने कभी जन्म के अनुसार वर्ण नही बनाये थे, उसमे सब कुछ कर्म अनुसार ही था। जिसे हमारे सामने किसी और रूप मे ही प्रदर्शित किया गया। क्योकी अगर वर्णो के अनुसार भेद-भाव होता तो, इस भारतवर्ष मे सदियों से कुंभ, सिंहस्थ व अनेको ऐसे आयोजन होते आये हैं, जहां सभी एक साथ बैठ कर भोजन भी करते हैं, और एक ही साथ लाखो की संख्या मे स्नान भी। तब क्या यह किसी ने नही सोचा होगा।
हमको जातो मे विभाजन कर हमपर राज करना मुगलो और अंग्रेजो की नीति थी, जिसे राजनेताओ ने भी आगे जारी रखा। और हम ठहरे कान के कच्चे की अपने ही शास्त्रो के गुढ़ रहस्यों को भूला और झूठला कर किसी और की ही बीन पर नागिन डांस करने लगे। और अपने अंदर इतना जहर समाहित कर लिया की, उससे अपनो को ही डसने लगे। अब ही वक्त हैं, अपने अस्तित्व को समझ एक हो जाओ। वरना इतिहास हो जाओगे, जिसे आने वाली हर पीढ़ी सिर्फ उस रूप मे देखेगी और समझेगी जो उन्हे इतिहासकार और चलचित्र वाले जिस रूप मे समझा देंगे। 🙏

©आयुष पंचोली 
©ayush_tanharaahi

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Wednesday, August 5, 2020

"राम" सिर्फ नाम नही, मानव जीवन के मूल्यों की पराकाष्ठा हैं।

रुपहले परदे पर नंगाई का नाच करने वाले हैं, 
आदर्श जिस युवा पीढ़ी के।
उनके रास्ट्र मे राम का आना एक मजाक सा लगता हैं।
वो गुजरते हैं दिन जिनके शराब के प्यालो, सीगरेट के छल्लो और नारियों के जिस्म की माप नापने मे,
उनका राम को पूजना एक छल सा लगता हैं।

अच्छी बात हैं, "श्रीराम" का वनवास खत्म हो ,
उन्हे उनका घर, उनका स्थान मिलने जा रहा हैं।
कारसेवको को उनके बलिदान का फल मिलने जा रहा हैं।
पवित्र आर्यावर्त के भारत भूमि के खण्ड पर एक नया इतिहास बनने जा रहा हैं।
पर मेरी नजरो मे तो सिर्फ यह व्यापार का जरिया बनकर,
मर्यादा की मुर्ति, आदर्शो के मूल स्थम्ब, एक सर्वश्रेष्ठ चारित्र का अपमान होने जा रहा हैं।

वह देश जहाँ रोज बलात्कार होते हैं,
जहां रिश्वत के आगे गरीब लाचार होते हैं।
जहां जिस्म का कारोबार सरे आम होता हैं।
जहां नंगाई आधुनिकता का उदाहरण बन गई हैं,
जहां की मूल संस्क्रति ही कही विलुप्त हो गई हैं।
वहां पर "श्री राम" क्या कभी आ पायेंगे,
क्या लगता हैं इस देश के युवा उनका एक भी गुण अपना पायेंगे।

फिर क्यो यह दिखावा करते हो,
मन मे पलता हैं पाप सभी के,
और "श्री राम" के अस्तित्व को अपनाने का ढोंग करते हो।
मर्यादा की सर्वश्रेष्ठ मुर्ति को तुमने राजनीती के खेल का मोहरा बना दिया,
अरे शर्म करो भारतवासियों अपनाना चाहिये था जिसके चरित्र को, जिसके आदर्श जीवन के मूल्यो को, बनाना था जिसको आदर्श तुम्हारा, तुमने उन्ही को वाहवाही पाने का जरिया बना लिया।

मन्दिर बन जायेगा "श्री राम" का, मगर राम के चरित्र को जब तक कोई अपना ना पायेगा, क्या लगता हैं किसी को तब तक राम राज्य आ भी पायेगा।
राम एक नाम नही, एक चरित्र की व्याख्या हैं,
मानव जीवन के मूल्यो की वो परकाष्टा हैं।

जब तक चरित्र को राम के, जब तक अस्तीत्व के मूल्यों को राम के,
जब तक भारत का हर एक इन्सान अपने अस्तीत्व मे ला ना पायेगा, तब तक राम का मन्दिर सिर्फ पत्थर का एक भवन कहलायेगा।

राम को समझना हैं तो राम को अपनाना पड़ेगा,
मात्र राम के नाम पर जयकारा लगाने से राम का कोई भक्त नही कहलायेग।

जीवन मे जब राम का कोई एक भी गुण भारत का हर वासी अपने अस्तित्व मे ला पायेगा उस दिन ही यह मन्दिर मे विराजित वह सर्वश्रेष्ठ मर्यादा के पालक, पुरुषोत्तम को अपने वनवास से सही मायनो मे छुटकारा मिल पायेगा।

राम की महत्ता का , राम के जीवन के मूल्यों का,
राम के चरित्र का, राम के "श्री राम" बनने के सफर का,
"श्री राम" की मर्यादा की सीमाओ का,
उनके धर्म के पालन का, उनके पुरुषोत्तम कहलाने के कारण का,
मूल आजतक कोई समझ नही पाया,
कोई कभी राम को पुर्ण रूप से चरित्र मे ढाल ना पाया,
कोई राम को कभी लिख ना पाया।

पर आज राम का मन्दिर बनने की घड़ी आ गई हैं,
एक विशाल व्यक्तित्व को महज कुछ एकड की जमीन पर विराजने की तैयारियां हो गई हैं। 

राम कृपा करे राम का आगमन आर्यावर्त की भारत भुमी के इस खण्ड पर हो जायें,
राम राज्य आये या ना आये मगर यहां के हर व्यक्ति के अस्तित्व मे राम के चरित्र का कुछ अंश तो आयें।
सवाल उठाने वाले कुछ लोग राम पर, राम की महत्ता को शायद समझ पायें,
राम एक जीवन की पुर्ण परिभाषा हैं, इसे काश हर कोई जान पायें।
शायद तब जाकर ही राम का वनवास हो खत्म, राम मन्दिर का निर्माण अपने उद्देश्य की पुर्ती को पा पायें।
अगर नही होता ऐसा तो सिर्फ यह राजनीती का खेल बनकर रह जायेगा,
राम का अस्तित्व, मर्यादा, चरित्र सिर्फ मजाक बनकर रह जायेगा, और यकीन मानियें, यह वनवास से भी ज्यादा बडा वनवास हो जायेगा।

सभी राम भक्तो को राम मन्दिर की नीव के प्रथम चरण की शुरुवात की बहुत बहुत बधाई । सभी कारसेवको को उनके बलिदान पर नमन। आशा हैं, राम मन्दिर के निर्माण के साथ ही हम सब अप्ने व अपनी आने वाली पीढियों मे राम के आदर्श व्यक्तित्व के गुण और चरित्र को ढाल सकने मे सक्षम हो पायें, तभी राम के "श्री राम" बनने की सार्थकता को उनका उद्देश्य मिल पायेगा। तभी राम का वनवास सही मायनो मे खत्म हो पायेगा।
"जय श्री राम"

राम, रामेती रामेती, रमे रामे मनोरमे,
सहस्त्र नाम ततुल्यं राम नाम वरानने।🙏 

©आयुष पंचोली 
©ayush_tanharaahi

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Friday, January 24, 2020

यात्रा खुद को पाने की

निकला था मैं भी मांगने को उस खुदा से तमाम ऐशो-आराम जिन्दगी के,
मगर जब मिला , तो छोड के सारे ऐशो-आराम जीवन के हर क्षण मे हर पल साथ उन्ही का माँग आया।

मोह छूट गया संसार से उसी क्षण,
जब सामने मेरे उभर कर प्रतिबिंब से उस मुरत की,
जलती हुई ज्योत सा पवित्र एक रूप उभर आया।

मैं असमंजस मे उस पल मे सांसारिक सबकुछ  झुठला बैठा ,
जब उस शक्ती के एहसास को जाना बस तबसे उसका हो बैठा।

मोह-माया की भाषा का वहां कोई तौल नही होता,
मन के भाव से बढ़कर वहां पर कोई और मौल नही होता।

सब कुछ भूल जाओगे जब उस मूल से ऊपर आओगे,
दुनिया के इस मायावी प्रपंच से मुक्त ही होना चाहोगे।

जब एहसास हो जायेगा झुठ हैं सबकुछ जो देखा , सुना और जाना हैं,
एक सत्य इस मिथ्या जीवन के मायावी संसार का बस अपने आप को पाना हैं।

पहले यात्रा खुद को पाने की , फ़िर असीम कल्पनाओ का विस्तृत यह ब्रह्मांड हैं,
एक खण्ड मे कही किसी चीटी सा हम रहते हैं, ऐसे ही 84 ब्रह्मांडो का सोच से भी परे एक विस्तृत यह वैदिक सार हैं।

मगर यात्रा सबसे पहले खुद को पाने की करनी होगी,
जब पा लिया खुद को तो, फ़िर हर यात्रा बहुत छोटी होगी।

शायद योगियों के जीवन का यही विस्तृत सार हैं,
कुछ भी नही हैं हम उसके आगे, जिसने रचा यह सारा मायाजाल हैं।🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Friday, September 27, 2019

मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं, देता रहा हैं, और सदैव देता रहेगा.... !!!

हम नही जानते धर्म क्या कहता हैं और अधर्म क्या कहता हैं। क्योकी धर्म और अधर्म का रिश्ता तो सदियो से चला आ रहा हैं। दोनो एक दूसरे से जुदा कभी नही रह सकते। धर्म की अधर्म पर विजय के लिये विश्व मे कितने ही युद्ध हुएँ और आगे भी होते रहेंगे। मगर पुर्ण रूप से धर्म कभी कही हो नही सकता। आप इतिहास उठाकर देखलो धर्म की स्थापना की नीव अधर्म के सहारे ही रखी जाती गई हैं, और सदैव रखी जाती रहेगी।
क्योकी जहां मोह होता हैं, वहां धर्म नही हो सकता। मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं और सदेव देता रहेगा। आपकी नजरो मे आप धर्म के साथ हो सकते हैं, मगर कही ना कही यह धर्म ही आपसे अधर्म कराता हैं। क्योकी मोह का त्याग आप कर नही सकते। और जब तक आपको सत्य का ज्ञान होता हैं, आप कितने ही अधर्म कर चुके होते हो।
धर्म, न्याय, उसूल, यह सब बाते होती हर जगह हैं, मगर इन्हे स्थापित और साबित करने को अधर्म का सहारा सदैव लिया जाता रहा हैं। चाहे बात सतयुग की हो, त्रैतायुग की हो या बात द्वापर की हो। धर्म की स्थापना मे अधर्म का सहारा लेना ही पढ़ता हैं। और यही बात कलयुग मे भी होकर रहेगी।
सत्य सदैव अनभिज्ञ रहता हैं, जिसका ज्ञान एक ना एक दिन मनुष्य को होकर ही रहता हैं। बस इन्तजार उस क्षण का रहता हैं, की कब वह मोह का त्याग करेगा। मोह का त्याग ही व्यक्ति को धर्म से जोड़ता हैं। और मोह का साथ अधर्म की राह पर ले ही आता हैं।
तथ्य और रहस्य हर जगह, हर सवाल, हर जवाब, हर आकार, हर नीति, हर मार्ग मे छूपे होते हैं। जिन्हे धर्म अपनी आंखो, अपनी सोच, अपने विचारो द्वारा अपनी कसौटी पर परखता और धारण करता हैं, और अधर्म अपनी पर। और जब तक व्यक्ति की सोच और विचार पर मोह का पर्दा रहता हैं, वह सत्य को जानते हुएँ भी अपने अधर्म को भी धर्म ही समझता हैं। यही इस संसार क नीयम हैं। और इस नीयम के सहारे न्याय की आशा रखना व्यर्थ ही हैं।
🙏🙏🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Thursday, August 22, 2019

33 प्रकार के पूजित देवता

33 प्रकार के देवता जो भिन्न रूपो मे पूजित हैं।

1- 🕉 जो प्रथम बीज हैं।
2- शिव - जो शुन्य और 🕉 का मूल हैं।
3- विष्णु - जो 🕉 का आकार हैं।
4 -शक्ती - जो 🕉 की गती हैं।
5- ब्रह्मा - सृष्टि के रचियता।
6- तत्व - अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश।
7 -सूर्य - ऊर्जा के कारक।
8 -चंद्र - शीतलता के कारक।
9 -ग्रह - जिनसे सबकुछ चल रहा हैं।
10 -नक्षत्र - जो गतिमान ग्रहो की शक्ती हैं।
11- इन्द्र - देवो के जो ईश हैं।
12- गन्धर्व - जो कला के कारक हैं।
13 -यक्ष - जो सकारात्मकता और नकरात्मक्ता दोनो के कारक और परीक्षक हैं।
14- गणेश - जो सभी प्रकार के गणो के कारक हैं।
15- यम - जो मृत्यू के कारक हैं।
16 -नाग - जो सृष्टि का भार उठाये हैं।
17 -मरुद्गन - जो कार्य का प्रभार बांटते हैं।
18- क्षेत्रपाल - जो क्षेत्र मे किसका प्रवेश होगा यह निश्चित करते हैं।
19- पित्र - जो ब्रह्मा के बाद और देवो के ऊपर हैं।
20 -विश्वकर्मा - जो श्रष्टी के कारीगर हैं।
21- रुद्र - जो संहारक हैं।
22- काल - जो निरन्तर गतिमान हैं।
23- प्रजापती - जो हर आयाम मे बदल जाते हैं।
24 -मनु- जो कार्य और वर्ण के अनुसार निर्धारण करते हैं।
25 -वास्तुदेव - पुर्ण भूमि पुरुष।
26 -नद , नदियाँ और सागर - जो जीव उत्पति का प्रथम स्थान हैं।
27- कुल देव - जो कुल के रक्षक हैं।
28 -कुल देवी - जो कुल की प्रगती हैं।
29- वनस्पति - जो जीवन यापन का मूल साधन हैं।
30- जीवात्मा - जिसमे जीव(जान) हैंं।
31 -युग - जो अन्त के बाद फिर उतपन्न होते हैं।
32 -शास्त्र - जो सम्पुर्ण ज्ञान का साधन हैं।
33 -संस्कार - जो जीवन से मृत्यू पर्यन्त चलते हैं , जिनमे जीवन और मृत्यू भी एक हैं।
यहाँ पर कुछ महात्मा 10 दिक्पाल को भी लेते हैं।

यह कुल 33 प्रकार से विभाजित हैं। जो अलग अलग रूपों मे पूजित हैं, जिनकी संख्या 33 करोड़ हो जाती हैं। मगर शिव, विष्णु और शक्ती यही तीन मुख्य हैं, जिनसे सबकुछ हैं। और वह सबकुछ ही  🕉 हैं। 🙏🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Monday, August 19, 2019

दशावतार

जब जब धर्म की होंने लगती हैं हानि,
धरती पर बढने लगते हैं, अधर्मी मनुष्य और अभिमानी ।
रोती हैं जब यह धरती माता खून के आँसू,
गोओ का रूदन जब चित्कार मचाता हैं।
तब हरने को पीड़ा इनकी,
काल उतर कर युग परिवर्तन करने आता हैं।
तब तब अवतरित होकर निराकार का परम अंश,
धरकर कितने ही विविध रूप अपनी सर्वोच्च सत्ता की महानता का एहसास सबको कराता हैं।
अन्त करके वो अधर्मीयों का,
धर्म को स्थापित फिर करके सृष्टि का भार उठाता हैं।
यही सदा से होता आया, यही सदा होने वाला हैं,
पाप का अन्त होकर रहता हैं, यहीं सत्य हैं जो घटित हैं होने वाला।
इस नश्वर सृष्टि मे कुछ भी नही हैं रहने वाला,
वही शून्य हैं जो रचता सबकुछ , सभी उस शून्य मे ही विलिन हैं होने वाला।
कितने ही युग बीत चुके हैं, कितने ही और बीत जायेंगे,
जो कल थे वो आज नही हैं, जो आज मे हैं वो कही कल हो जायेंगे।
यह चक्र अनवरत चलता रहता, यह कालचक्र कहलाता हैं,
काल के गर्भ से उतपन्न काल को एक दिन पाता हैं।

था सबसे पहले सतयुग, जहाँ सत्य ही सबसे बढ़कर था,
ज्ञान और मोक्ष ही जिसका मूल आधार स्तम्भ था।
देव भी थे वहां पर, असुर भी थे,
देवताओ के थे राजा इन्द्र, असुरो के राजा भी बली महान थे।
था एक असूर हयग्रीव नाम का, अश्व का सर और मानव का धड़ ,
बड़ा अधम अभिमानी और बडा ही बलवान बलवान था।
धर्म के नाश के हेतु उस दानव ने पापजनित एक कार्य किया,
सारे वेदो को ले जाकर समुद्र मे था कही छुपा दिया।
जब वेद कही गुम हो बैठे , तब ब्रह्मा जी जागे।
ज्ञान का कैसे अन्त हो गया, आने वाला समय कैसा होगा,
यह विचारकर देवो सन्ग नारायण के दर पर भागे।
कर स्तुति नारायण की अपनी विपत्ति सब कहने लगे,
वेदो की रक्षा और पून्ह स्थापन को विनती उनसे करने लगें।
तब उस परं शक्ती धरकर रूप एक मछली का,
वेदो को समुद्र से फिर हांसिल था किया।
करकर संहार हयग्रीव का, दानवो का था दमन किया,
सोंपकर उनको बृह्मा को फ़िर ज्ञान को था सुरक्षित किया।
यह अवतार उस परम शक्ती का प्रथम अवतार कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे मत्स्य अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

फिर कुछ काल बीत चुके थे, सबकुछ स्थिर सा चलता था,
पर काल की करनी को काल गी समझ बस सकता था।
इन्द्र ने अपने मोहके वश, शिव के अन्शावतार ऋषी दुर्वासा का अपमान किया,
क्रोध मे भरकर उन ऋषिवर ने समस्त देवताओ को श्रीहीन होने का था श्राप दिया।
श्री से वंचित सभी देवता बड़े ही दुर्बल हो बेठे,
खोकर अपनी सम्पत्ति और शक्ती असुरो से पराजित हो बैठे।
तब उन सबने जाकर फिरसे बृह्मा और नारायण की शरण माँगी,
नारायण ने उनकी करनी की युति के समाधान को पाने को फिर जाकर शिव से सलाह माँगी।
सबने अपने विचार रखे ,तब समुद्र मथने का निर्णय लिया गया,
देवताओ को शक्तीहीन जानकर, देत्यो को भी समुद्र मंथन मे शामिल किया गया।
उस विशाल क्षीर को मथने को, मन्दराचल पर्वत को मथनी और नागराज वासुकी को नेती बनना पढ़ा।
इतना विशाल पर्वत जब समुद्र की गहराई मे था समाने लगा,
तब समुद्र मंथन को सफल बनाने और देवताओ को अपना पद दिलवाने को,
उस परमशक्ती को धरकर रूप कच्छप का, मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करना पढ़ा।
देवताओ के उद्धार के लिये, लिया गया यह कच्छप अवतार नारायण का द्वितीय कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे कुर्म अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

फिर युग धीरे-धीरे बढने लगा, धर्म का भी विकास होने लगा,
दैत्यो का निरन्तर संहार होने लगा।
दैत्यो को देवो के आगे पराजित पाकर,
हिरनकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो महाशाली दैत्य भ्राताओ ने,
फिर धरती को पृताडित किया,
अपनी असूरी शक्ती के बल पर देवताओ को भयभीत किया।
हिरण्याक्ष ने अपनी भुजाओ का बल पाकर ,
पृथ्वी को जल मे समा दिया।
ऐसा कर्म किया उस अधम ने चारो और चित्कार मचा।
तब धरती को जल से वापस लाने को,
उस परम शक्ती ने धारण वाराह अवतार किया।
कर संहार उस अधम अभिमानी का,
धरती को जल से वापस मुक्त किया।
जीवो के उद्धार के लिये , लिया गया यह जंगली शुकर अवतार नारायण का तृतीय अवतार कहलाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म मे वाराह अवतार के रूप मे पूजा जाता हैं।

अपने अनुज भ्राता को मिली मुक्ति से अवसादीत,
हिरन्कश्यपू बहुत क्रोधित हो बैठा।
पाने को वरदान अमरत्व का भजने ब्रह्मा को बैठा।
कई हजार वर्षो की तपस्या से उसने यह फल पाया,
बड़ा विचित्र वरदान समान अमरत्व के ही था पाया।
वह अनुज के वध से क्रोधित हो नारायण से नफरत करता था,
नारायण को पूजने वाला हर कोई उसको शत्रु लगता था।
उसके कुल मे ही घटित एक विचित्र अनहोनी हो बैठी,
उसकी ही सन्तान वहां नारायण प्रेमी हो बैठी।
जब उसके समझाने पर भी पुत्र प्रह्लाद ने नारायण को भजना ना छोड़ा,
आवेश मे आकार उस नराधम ने प्रह्लाद को जिन्दा मृत्यू के सुपुर्द करने को खंब मे चुनवाने को बोला।
भक्त की विवश पुकार को सुनकर परम शक्ती नरसिंह अवतार धारण कर वहाँ खंब फाड़कर प्रकट हुई,
क्या विचित्र काया थी उसकी सर सिंह का धड़ मनुष्य का, क्या खुब प्रभू की यह माया हुई।
अपने भक्त की रक्षा करके हिरन्कश्यपू का उस अवतारित शक्ती नरसिंह ने संहार किया,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने नारायण के चतुर्थ अवतार के रूप मे पूजित बारम्बार किया।

फ़िर कुछ समय बीत जाने पर दैत्य राज बली ने तीनों लोको को जीत कर अपने अतुल पराक्रम से देवो को शर्मसार किया,
अपने राज्य को वापस पाने को देवो ने फ़िर नारायण को याद किया।
एक समय जब दैत्यराज बली ने महान यज्ञ का अनुष्ठान किया,
देकर दान दक्षिणा सभी ब्राह्मणो का था सम्मान किया।
तब उस परम शक्ती ने ऋषी कश्यप के तप से दक्ष कन्या अदिती के गर्भ से उतपन्न हो,
धारण वामन अवतार किया।
जाकर राजा बली के समक्ष दान मे तीन पग भूमी का अटल उन्ही से वचन लिया।
तीन पगो मे उस वामन रूपी अवतार पुरुष ने तीनो लोको को नाप लिया।
वापस इस अद्भूत युक्ति से उस परम शक्ती ने देवो फिर उनका अधिकार दिया।
एक बार फिर पुनः धर्म की रक्षा की खातिर नारायण ने यह कैसा अद्भूत चमत्कार किया,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने नारायण के पंचम वामन अवतार के रूप मे शिरोधार्य किया।

समय बीतते बीतते पृथ्वी पर राजा बहुत से हो बैठे,
भार बड़ा पृथ्वी का इतना की शेष भी दर्द से कराह बैठे।
असंख्य क्षत्रिय वीरों से उस समय पृथ्वी शोभा पाती थी,
पर अपने हालात पर खून के आंसू बहाती थी।
हर जगह युद्ध के क्रूर कृन्दन सुनाई देते थे,
रक्त रंजीत पृथ्वी के भू-भाग दिखाई देते थे।
तब पृथ्वी के भार को हरने उस परमशक्ती ने,
ऋषी जमदग्नी के अतुल शौर्य से माँ रेणुका के गर्भ से उतपन्न हो,
परशुराम अवतार लिया।
करकर संहार क्षत्रिय वीरों का,
और क्षत्रिय वीर क्षिरोमणी सन्हसत्रार्जून का पृथ्वी का उन्होने भार हरा।
पृथ्वी के उस करुण पुकार को हरने को प्रभू ने अपना ष्स्ठ ब्राह्मण वंश शिरोमणी,
श्री परशुराम अवतार लिया।
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने बृह्म शिरोमणी का ताज दिया।

फ़िर समय बीतते बीतते 24 वा त्रैतायुग आया,
जहां भयंकर प्रलय राक्षस राज रावण ने था दिखलाया।
तब करने को अन्त असुरो का प्रभू ने फ़िर चमत्कार किया,
पुरुषो मे जो उत्तम कहलाया, वह राम अवतार लिया।
अयोध्या के राजा दशरथ के महान प्रताप से और माता कौशल्या के गर्भ से,
उतपन्न हो प्रभू ने रामावतार लिया।
यह राम अवतार पुरूषो मे सबसे उत्तम कहलाया,
वचन और मर्यादा का महान पाठ जिसने दुनिया को सिखलाया।
धर्म धुरंधर राम प्रतापी, अयोध्या से निकले जब करने शत्रुओ का संहार,
दशो दिशाये मिलकर करने लगी थी, उनका आदर सत्कार।
कितनी ही लीलाये प्रभू ने राम रूप मे दिखलाई,
मनुष्य की पीड़ा की गहराई भी सहकर बतलाई।
वानरो की सेना को साथ ले प्रभू ने फ़िर कोहराम किया,
राक्षसो का कर संहार प्रभू ने राक्षस राज रावण को अपना परम धाम दिया।
प्रभू का यह अवतार हिन्दुत्व की मान मर्यादा का रक्षक हैं,
हिन्दूओ मे राम आराध्य हैं, शिव जपते जिनको निरन्तर हैं।
यह परम शक्ती कलयुग मे मुक्ति का एक लौता मार्ग हैं,
जिनके नाम मे ही समाया निराकार ब्रह्म का राज हैं।
यह नारायण का परम पुरुष सप्तम अवतार राम के नाम से पूजा जाता हैं,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म का पुर्ण आधार माना जाता हैं।

फ़िर आया युग द्वापर का जहां होना कुछ बड़ा निर्धारित था,
पृथ्वी रही थी पुकार प्रभू को हरने उतरो भार,
बड़ती जा रही हैं वीर मनुष्यो की संख्या बारम्बार।
बोझ से होगई मे बेहाल।
तभी आया युग 28 वा द्वापर,
धरकर आये प्रभू रूप अनुपम।
वसुदेव को बनाके पिता,
देवकी को माना माता।
हुआ अवतार बड़ा अद्भूत,
नाम था कृष्ण करता था जो सबको विस्मृत।
जिन्होने बिखरे हुएँ यदुवंश को जोड़ा,
कंस के घमंड को तोड़ा ।
कितने अधर्मीयों का किया संहार ।
उग्रसेन को पहनाया यदुवंश के सर का ताज।
जिन्होने करने को पृथ्वी का कार्य,
करकर बहुत विचार,
महाभारत को रच डाला ,
जहां हुआ था असंख्य क्षत्रियों का संहार।
दिया कुरुक्षेत्र मे अद्भूत गीता का ज्ञान,
जो हैं हर ज्ञान मे सबसे महान ।
प्रभू के अवतारों मे श्रेष्ठ परम अवतार हुआ था जो,
श्रीकृष्ण के नाम से पूजित वसुदेव का लाल हुआ था जो।
नारायण का अष्ठम अवतार जो था सभी कलाओ का सार,
जिसे सत्य सनातन परम धर्म ने माना हर पल अद्भूत ज्ञान का आधार।

अब हुआ यहां कुछ यूँ की असमंजस मे सब रहते,
कौनसा हैं प्रभू का नवम अवतार।
जिसे कहते हैं व्यास अवतार या फ़िर बुद्ध अवतार।
बुद्ध का मतलब ही हैं ज्ञान, जिसने जाना सत्य को महान,
किया हैं शून्य का ज्ञान वही कहलायेग बुद्ध अवतार महान।
यहां एक ही बुद्ध हो यह हो नही सकता,
किसे कहूँ प्रभू का नवम अवतार , जो वर्णित हुआ पुराणों मे, ता जिसको सभी मानते हैं,
भागवत पुराण अजीन पुत्र को बुद्ध मानती हैं,
भविष्य पुराण गौतम पुत्र को बुद्ध मानती हैं,
कल्की पुराण शुद्दोधन पुत्र को बुद्ध मानती हैं।
मतलब अवतार तो बुद्ध ही हैं,
मगर असमंजस इतना क्यो।
जहां हो ज्ञान शून्य का निरन्तर ,
जहां परम तत्व प्राप्त हो जायें।
वही समझ लेना बुद्ध अवतार का साक्षात्कार हो जाये ।

वर्तमान मे जो घटित हैं हो रहा, इसे सब कलयुग कहते  हैं,
कलयुग के अन्त मे सब ग्रंथ प्रभू के अन्तिम दशम अवतार का अवतरण कहते हैं।
जब आयेगा घोर कलयुग, हर तरफ़ सिर्फ अन्धकार ही होगा,
हर जगह पृताडित होंगे सज्जन, वेदो का बस उपहास ही होगा।
जब ज्ञान यहाँ अन्त हो जायेगा, गंगा का जल खो जायेगा,
सब तीर्थ कही छुप जायेंगे, जब हर तरफ अन्याय ही नजर आयेगा।
तब करने की अन्त युगों का प्रभू कल्की का रूप धारण करके आयेंगे।
करकर संहार असुरो का, धर्म की फिरसे अलख जगायेंगे।
यह कल्की अवतार प्रभू का अन्तिम परमअवतार कहलायेगा ।
इसके अवतरित होने के कुछ सालों बाद कलयुग का अन्त हो जायेगा।
सम्पुर्ण धरा जलमग्न होके अपना अस्तित्व गंवा देगी।
जीवो की हर एक प्रजाति सम्पुर्ण समूल नष्ट हो जायेगी।

फिर होगा एक नया आरम्भ, नया सतयुग फ़िर आयेगा।
काल चक्र का चक्र सदा अनवरत ही चलता जायेगा।
अन्त होगा, फिर होगा आरम्भ,
हर आरम्भ फिर अन्त को पायेगा।
बस यही हैं सत्य सब नश्वर हैं,
शून्य से हैं, शून्य मे ही विलिन हो जायेगा।
फ़िर आरम्भ होगा पुनःशून्य से,
फ़िर अन्त होकर पुनःशून्य मे समा जायेगा।
काल का चक्र अनवरत चलता रहेगा,
जो शून्य हैं बस वही सदा रह जायेगा.....!!!!!!!🙏🙏🙏🙏🙏

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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Sunday, August 18, 2019

हाँ सच हैं यह....!!!

हाँ सच हैं यह....

मैं ठोकर खाकर ही चलना सीखा हूं,
धोखे खाकर ही जीना सीखा हूं।
अब हैरत नही होती मुझको,
दुनिया को बदलते देखकर।
मैं अपनी खुशियों को मरघट मे,
दफना करके निकला हूँ।
सबको दूर ही छोड़ आया मैं,
सबसे रिश्ता तोड़ आया मैं,
हाँ मैं खोकर सबको,
खुद को पाने निकला हूं।
फ़र्क नही पड़ता अब मुझको,
दुनियावालों की बातों का।
बनकर एक तमाशा दुनिया मे,
कोई किस्सा बनकर निकला हूँ।
हाँ सच हैं यह.....
टूटा भी मैं, बिखरा भी मैं,
खुद ही मे था उलझा भी मैं,
अब खुद ही निखरने निकला हूं।
मैं क्या हूं यह पता नही हैं,
मैं क्या था , अब भूल चुका हूं।
मैं खुद को खुद ही से मथने,
मंथन करने निकला हूँ ।
क्या खोया, क्या पाया मैने,
अब तक कितने अरमानो को हैं,
सूली पर चड़ाया मैंने।
अब सारे सपनों को भुलाकर,
अपना कहने वाले अपनो के,
अपनेपन को भुलाकर,
अपनी पहचान बनाने निकला हूं।
भला हूं मैं, या बुरा हूं मैं,
जिन्दा हूं या हूँ कहीं गुम हुआ सा मैं।
पता नही मुझे कुछ भी, क्या हूँ,
क्या हो गया हूं, क्या और होने वाला हूं मैं।
अब रोना छोड़ दिया हैं हालातो पर,
जानता हूँ इस नश्वर सत्ता मे जो कुछ भी हैं पाया,
वह सब एक ना एक दिन खोने वाला हूं मैं।
बस शुन्य की खोज मे निकल पढ़ा हूं,
जानता हूं उसी मैं विलीन होने वाला हूं मैं।

हाँ सच हैं यह.....
बदल गया हूं मैं,
क्योकी जान गया हूं,
पाया ही क्या हैं मैने,
जो शौक मनाऊँ की कुछ खोने वाला हूं मैं।
अनन्त के ,
अन्त मे ,
अन्त को हैं जो,
अन्तिम बिंदु ,
हां उसी अन्त को पाकर पूर्ण होने वाला हूं मैं।
हां हूँ मैं अपूर्ण और सदैव रहूँगा,
पूर्णता को शून्यता से बेहतर जो समझने वाला हूं मैं।

©आयुष पंचोली
©ayush_tanharaahi

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